Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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गोम्मटसार कर्मकाण्ड - ४३०
कर्मावस्थालक्षणान्युदयस्थानानि" अर्थात् कर्मों का अपना फल देने की समर्धतारूप अवस्था को प्राप्त होना उदय का लक्षण है । "स्वफलसम्पादन समर्थ कर्मावस्थालक्षणानि स्वफलभूतसुखदुःखाद्यात्मक जीव विभावपरिणामजननसामर्थ्य सम्पन्नकर्म परिणामस्वरूपाण्युदयस्थानानि ।” अर्थात् अपने फल को देने की सामर्थ्यरूप कर्म की अवस्था यानी कर्मों का फल जीव में सुख-दुःखादि विभावों (परिणामों) को उत्पन्न करना है। उस फल को उत्पन्न करने की शक्ति सहित जो पौद्गलिक कर्म के परिणाम हैं वह उदय का लक्षण या स्वरूप है।" "जे कम्मक्खंधा ओकड्डुक्क हुणादिपओगेण विणा विदिक्खयं पाविदूण अप्पप्पणो फलं देति तेसिं कम्मधाणमुदओ त्ति सण्णा ।" अर्थात् जो कर्मस्कंध अपकर्षण, उत्कर्षणादि प्रयोगबिना स्थितिक्षय को प्राप्त होकर अपना-अपना फल देते हैं उन कर्मस्कंधों की 'उदय' यह संज्ञा है । "कर्माणामनुभवनमुदयः " अर्थात् कर्मफल का वेदन उदय कहलाता है। "कर्मणां फलदानसमर्थतयोद्भूतिरुदयः” अर्थात् कर्मों का फलदान समर्थ रूप से उद्भव सो उदय है। "
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उदीरणा - "सो चेव बंधो बधायादिकात ओदू उदर घुमणी उदीरणा होंदि ।" कर्मबंधने के पश्चात् आवलीकाल (बंधावली) व्यतीत होने पर अपकर्षणकर जब उदय संक्षुभ्यमान किया ( दिया) जाता है सो उदीरणा है। बंधावलीकाल तक तो कर्मबन्ध अचल ( ज्यों का त्यों ) रहता है उसके पश्चात् अपनी स्थिति पर्यंत अपकर्षण के द्वारा उसका जो द्रव्य उदयावली में दिया जाता है उस कर्मद्रव्य की उदीरणा संज्ञा है । "जे कम्मक्खंधा महंतेसु हिंदि - अणुभागेसु अवट्टिदा ओक्कड्डिदूर्ण फलदाइणो कीरंति तेसिमुदीरणा त्ति सण्णा ।" अर्थात् जो महान् स्थिति व अनुभाग में स्थित कर्म स्कंध अपकर्षण करके फल देने वाले किए जाते हैं उन कर्मस्कंधों की 'उदीरणा' संज्ञा है। "अपक्वपाचनमुदीरणा । आवलियाए बाहिरडिदिमादि काढूण उवरिमाणं विदीर्ण बंधावलियवदिक्कतपदेलगगमसंखेज्जलोगपडिभागेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागपडिभागेण वा ओकट्टिदूण उदयावलियाए देदि सा उदीरणा ।" अर्थात् नहीं पके हुए कर्मों के पकाने का नाम उदीरणा है। आवली से बाहर की स्थितियों के बन्धावली अतिक्रान्त प्रदेशाग्र को असंख्यात लोक प्रतिभाग से अथवा पल्योपम के असंख्यातवें भागरूप प्रतिभाग से अपकर्षण करके उदयावली में देना, यह उदीरणा कहलाती है।" "उदीरणा पुण अपरिपत्तकालाणं चेव कम्मणमुवायविसेसेण परिपाचणं, अपक्क परिपाचनमुदीरणेति वचनात् ।" अर्थात् जिनकर्मों का उदयकाल प्राप्त नहीं हुआ है उनको उपायविशेष से पचाना उदीरणा है, क्योंकि अपक्व का परिपाचन उदीरणा है ऐसा वचन हैं । "
१. समयसार गाथा ५३ आत्मख्याति टीका
२.
४. प्राकृत पंचसंग्रह पृष्ठ ६७६ (भारतीवज्ञानपीठ प्रकाशन ) ।
७. धवल पु. ६५.२१४ ।
६. धवल पु. ६ पृ. २०२ । ९. जयधवल पु. १०५.२।
६. ध. पु. ६५.२१३। ५. पञ्चास्तिकाय गाथा ५६ की टीका।
८. धवन्न पु. १५.४३ ।