Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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मोटसार कर्मकाण्ड-४२९
यथा- अकर्मबन्ध कर्मबन्ध के भेद से बन्ध के दो भेद हैं। उनमें से जो कार्मणवर्गणाओं में से अकर्मरूप से स्थित परमाणुओं का ग्रहण होता है वह अकर्मबन्ध है और कर्मरूप से स्थित पुद्गलों का अन्य प्रकृतिरूप से परिणमना कर्मबन्ध है। उदाहरणार्थ-सातारूप से बन्ध को प्राप्त हुए जो कर्म अन्तरंग कारण के मिलने पर जब असातारूप से परिणमन करते हैं, या कषायरूप से बँधे हुए कर्म बन्धावली के बाद जब नोकषायरूप से परिणमन करते हैं, तब वह कर्मबन्ध कहलाता है, क्योंकि कर्मरूपता का त्याग किये बिना ही ये कर्मान्तररूप से पुन: बँधते हैं।
अपकर्षण और उत्कर्षण में भी कर्म कर्मरूपता का त्याग किये बिना ही स्थित्यन्तर व अनुभागान्तररूप से पुनः बँधते हैं अत: अपकर्षण-उत्कर्षण का भी संक्रमण में अन्तर्भाव किया गया है। इस प्रकार बन्ध के साथ-साथ संक्रमण, अपकर्षण व उत्कर्षण का कथन किया गया है।
सत्त्व- 'बंधो चेव बंधविदियसमयप्पहुडि संतकम्मं उच्चदि जाव पिल्लेवणचरिमसओत्ति'- अर्थात् बंध की ही बँधने के दूसरे समय से लेकर निर्लेपन अर्थात् क्षपण होने के अन्तिम समय तक सत्कर्म या सत्त्व संज्ञा है। अकर्मबन्धरूप व कर्मबन्धरूप संक्रमण, उत्कर्षण
और अपकर्षण के पश्चात् कर्म का सत्त्व होता है और जब तक उस कर्म का वेदन होकर अकर्मभाव को प्राप्त नहीं होता तब तक उस कर्म का सत्त्व रहता है। अत: जिन कर्मों का सत्त्व है उन्हीं कर्मों का वेदन होता है। वह वेदन कर्मोदय व उदीरणा के द्वारा होता है। कहा भी है- "कधं पुण उदयोदीरणाणं वेदगववएसो? ण, वेदिजमाणत्तसामण्णावे क्खाए दोण्हमे देसिं तस्वयएससिद्धीए विरोहाभावादो।" अर्थात् उदय और उदीरणा दोनों ही सामान्य से वेद्यमान हैं, इस अपेक्षा उन दोनों की वेदक संज्ञा सिद्ध होने में विरोध नहीं आता। अतः वेद्यमान उदय और उदीरणा में प्रथम कर्मोदय का कथन किया जाता है।
उदय- "ते ध्येय फलदाणसमए उदयववएस पडिवजंति" अर्थात् जीव से संबद्ध हुए वे ही कर्मस्कंध फल देने के समय में 'उदय' इस संज्ञा को प्राप्त होते हैं। "सो चेव दुसमयाधियबंधावलियाए डिदिक्खएण उदए पदमाणो उदयसण्णिदो।" अर्थात् बँधा हुआ कर्म दो समय अधिक बंधावली के व्यतीत हो जाने पर निषेकस्थिति के क्षय से उदय में पतमान अर्थात् गिरता हुआ उदय इस संज्ञावाला होता है।' “तत्थोदयो णाम कम्माणं जहाकालजणिदो फलविषागो । कम्मोदयो उदयो त्ति भणिदं होदि ।' अर्थात् यथाकाल उत्पन्न हुए फल के विपाक का नाम कर्मोदय है। कर्मोदय का नाम उदय है। यह उक्त कथन का तात्पर्य है। "स्वफलसंपादनसमर्थ१.ध.पु.६ पृ. २०१।
२. जयधवल पु. १० पृ. २। ३. जयधबल भु. १ पृ. २९५ पेराग्राफनं. २५० (प्रथमसंस्करणापेक्षा) तथा द्वितीयावृत्ति की अपेक्षा पु, २६५ पं. नं. ७ । ४. ध. पु.६ पृ. २०२।
५. जयध. पु. १० पृ. २५