Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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गोम्मटसार कर्मकाण्ड-३४६
अबद्धायुष्क का दूसरा सत्त्वस्थान, १४५ प्रकृति में से बध्यमान एक आयु की सत्ता घटाने पर १४४ प्रकृतिरूप ही है अत: चारों गति के जीवों के भुज्यमान आयु की अपेक्षा चार भङ्ग हैं। भुज्यमानतिर्यञ्चायु वाले के तिर्यञ्चायुसहित १४४ प्रकृति का सत्त्वस्थान पाया जाता है। भुज्यमाननरकायु वाले के नरकायु की सत्ता सहित १४४ प्रकृतिरूप सत्त्वस्थान हैं। इस प्रकार प्रकृतियों के बदलने से यहां भी अन्य-अन्य भङ्ग जानना, तथैव अन्यत्र भी जानना चाहिए।
किसी मिथ्यादृष्टि जीव ने पहले अप्रमत्तगुणस्थान को प्राप्त करके वहाँ पर आहारक चतुष्क का बन्ध नहीं किया इसलिए उसके आहारकचतुष्कका सत्त्व नहीं है। अथवा अप्रमत्तगुणस्थान में आहारकचतुष्कका बन्ध करके पश्चात् असंयमी या मिथ्यादृष्टि होकर आहारकचतुष्क की उद्वेलना करके आहारकचतुष्क के सत्त्वरहित हुआ ऐसा जीव मनुष्य में उत्पन्न होकर पहले नरकायु का बन्ध करके पश्चात् वेदकसम्यक्त्व को प्राप्त कर असंयतगुणस्थानवर्ती होता हुआ। केवली-श्रुतकेवली के निकट षोडशकारणभावना को भाकर तीर्थङ्करप्रकृति का बन्ध करके तथा तीर्थङ्करप्रकृति का सत्त्व होने से भुज्यमान ारा के अन्तर्गदर्न जवाशेष पहले सरजिनीय और तृतीय पृथ्वी में गमन करने के योग्य मिथ्यादृष्टि होता है। जिस जीव के तीसराबद्धायुस्थान तिर्यञ्चायु, देवायु और आहारकचतुष्क के बिना १४२ प्रकृतिरूप पाया जाता है, वहाँ पर ही एक भङ्ग है। अतः इसीप्रकार से १४२ प्रकृति का सत्त्व पाया जाता है, अन्य प्रकार से नहीं।
जिसने पहले मनुष्य-तिर्यञ्चायु का बन्ध कर लिया है उसके तीर्थहरप्रकृति का बन्ध नहीं होता और जिसके देवायु का बन्ध हो गया हो उसके तीर्थङ्करप्रकृति का सत्त्व हो सकता है, किन्तु मिथ्यादृष्टि के नहीं।
शङ्का - तीर्थङ्कर प्रकृति के बन्ध का प्रारम्भ मनुष्य के ही कहा है तो फिर असंयत देव-नारकी के तीर्थङ्करप्रकृति का बन्ध कैसे कहा?
समाधान - यद्यपि तीर्थङ्करप्रकृति के बन्ध का प्रारम्भ तो मनुष्य के ही होता है, तथापि वह यदि सम्यक्त्व से च्युत नहीं होता है तो अन्तर्मुहूर्तअधिक आठवर्षकम दो-कोटिपूर्वअधिक तैंतीससागरपर्यन्त उत्कृष्टरूप से प्रतिसमय तीर्थङ्करप्रकृति का बन्ध समयप्रबद्ध में होता रहता है। इसलिए देव-नारकी में भी तीर्थङ्करप्रकृति का बन्ध घटित होता है।
तृतीय अबद्धायुष्कसत्त्वस्थान मनुष्यायु के सत्त्व से भी रहित है अतः तिर्यञ्च-मनुष्य-देवायु और आहारकचतुष्टय इन सात प्रकृतिबिना १४१ प्रकृतिरूप है। यदि तीर्थङ्करप्रकृति की सत्तावाला मरणकर द्वितीय-तृतीयनरक में गया वहाँ अपर्याप्तादि अवस्थाओं में तीन अन्तर्मुहूर्तपर्यन्त मिथ्यादृष्टि ही रहता है उसके भुज्यमाननरकायुबिना अन्यआयु का सत्त्व नहीं है। इसी जीव के इस प्रकार की सत्ता पाई जाती है अतः एक ही भङ्ग है, अन्य प्रकार से ऐसी सत्ता नहीं पायी जाती।