Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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अर्थ - श्रीकनकनन्दिसिद्धान्तचक्रवर्ती के सम्प्रदाय में इस प्रकार कहा है कि उपशमश्रेणी के चार गुणस्थानों में अनन्तानुबन्धी के सत्त्वसहित १४६ प्रकृतियों के सत्त्व को आदि लेकर बद्धायुष्क और अबद्धायुष्क की चार पंक्तियों में जो आठ स्थान कहे थे वे नहीं हैं इसलिए जो २४ स्थान कहे थे उनमें आठ स्थान कम कर देने पर १६ ही स्थान हैं। क्षपक अनिवृत्तिकरण गुणस्थानवर्ती प्रथम तो अप्रत्याख्यान और प्रत्याख्या कायों का करते हैं आदि प्रकृतियों का क्षय करते हैं ऐसा किन्हीं आचार्यों के मतानुसार कहते हैं।
जो आठ स्थान कम होते हैं उनका विवरण इस प्रकार है
गोम्मटसार कर्मकाण्ड - ३९२
णत्थि अणं उवसमगे, खवगापुव्वं खवित्तु अट्ठा य । पच्छा सोलादीणं, खवणं इदि के णिद्दिनं ॥ ३९९ ॥
बद्धायुष्क की अपेक्ष
प्रथम स्थान १४६ प्रकृति युक्त द्वितीय स्थान १४५ प्रकृति युक्त तृतीय स्थान १४२ प्रकृति युक्तः चतुर्थ स्थान १४१ प्रकृति युक्त
सर्व
तीर्थकर रहित
आहारक
चतुष्करहित तीर्थंकर और आहा. चतुष्करहित
१ भंग
भंग
१ भंग
१. भंग
४ भंग
सर्व
४ भग
अन्य आचार्यों के मतानुसार क्षपकअनिवृत्तिकरण गुणस्थान के सत्त्वस्थान व उनकी प्रकृति संख्या
१३७ १२९ ११३
१३४ १२६
अबद्धायुष्क की अपेक्षा
प्रथम स्थान १४५ प्रकृति युक्त द्वितीय स्थान १४४ प्रकृति युक्त
११०
तृतीय स्थान १४१ प्रकृति युक्त चतुर्थ स्थान १४० प्रकृति युक्तः
१३८ १३० ११४ ११३ ११२ १०६ १०५ १०४ १०३
११२ १११ १०५ १०४ १०३ १०२
१०९ १०८ १०२
१०१
१३३ १२५ १०९ १०८ १०७ १०१ १००
१ भंग
१ भग
१ भंग
१. भंग
अणियट्टिगुणट्ठाणे, मायारहिदं च ठाणमिच्छति । ठाणा भंगपमाणा, केई एवं परूवेंति ॥ ३९२ ॥
१००
१९
९९
९८