Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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गोम्मटसार कर्मकाण्ड-३९८ कौनसी हैं? उत्तर- ज्ञानावरण की ५, दर्शनावरण की ९, वेदनीय की २, सज्वलनलोभ, स्त्रीनपुंसकवेद, अरति-शोक, नरक तिर्यञ्च-मनुष्यायु, नरक-तिर्यञ्च-मनुष्यगति, पञ्चेन्द्रियजाति,
औदारिक-तैजस-कार्मणशरीर, ६ संहनन, औदारिकअनोपाङ्ग, ६ संस्थान, वर्ण चतुष्क, नरकतिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क (अगुरुलघु, उपधात, परघात और श्वासोच्छ्वास), उद्योत, प्रशस्तअप्रशस्तविहायोगति, सचतुष्क (स, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक), स्थिर-अस्थिर, शुभ-अशुभ, सुभगदुर्भग, सुस्वर-दुःस्वर, आदेय-अनादेय, यशस्कीर्ति, निर्माण तीर्थङ्कर, उच्चगोत्र-नीचगोव और अन्तराय की पाँच ये ८१ प्रकृतियाँ उदयव्युच्छित्ति से पूर्व बन्ध से व्युच्छिन्न होती हैं। प्रश्न ३. बन्ध-उदयव्युच्छित्ति युगपत् किन-किन प्रकृतियों की होती है? उत्तर- मिथ्यात्व, आतप, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, स्थावर, सूक्ष्म अपर्याप्त, साधारण, सञ्चलमलोभ बिना १५ कषाय, भय-जुगुप्सा, हास्य-रति, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रियजाति, पुरुषवेद इन ३१ प्रकृतियों की बन्ध-उदयव्युच्छित्ति युगपत् होती है।
यहाँ पर महाधवल के अनुसार स्थावर, एकेन्द्रिय और विकलत्रय की व्युच्छित्ति मिथ्यात्व गुणस्थान में होती है, ऐसा जानना। आगे के गुणस्थानों में उदय अथवा बन्ध का अभाव हो जाना व्युच्छित्ति कहलाती है। आगे अन्य तीन प्रश्नों का समाधान दो गाथाओं से करते हैं
सुरणिरयाऊ तित्थं, वेगुम्वियछक्कहारमिदि जेसिं । परउदयेण य बंधो, मिच्छं सुहुमस्स घादीओ॥४०२॥ तेजदुगं वण्णचऊ , थिरसुहजुगलगुरुणिमिणधुवउदया ।
सोदयबंधा सेसा, बासीदा उभयबंधाओ।।४०३ ।।जुम्मं ।। अर्थ-देवायु, नरकायु, तीर्थङ्कर, वैक्रियिक शरीर, वैक्रियिकअङ्गोपाङ्ग, देवगति-देवगत्यानुपूर्वी, नरकगति-नरकगत्यानुपूर्वी, आहारक शरीर, आहारकअङ्गोपाङ्ग इन ११ प्रकृतियों का पर के उदय में बंध होता है। इनका उदय रहते इमका बंध नहीं होता। मिथ्यात्व प्रकृति तथा सूक्ष्मसापराय गुणस्थान में व्युच्छिन्न होने वाली ५ ज्ञानावरण, ४ दर्शनावरण, ५ अंतराय इस प्रकार ये तो १५ प्रकृति और तैजसकार्मण, वर्णादि चार, स्थिर-अस्थिर, शुभ-अशुभ, अगुरुलघु, निर्माण ये १२ ध्रुवउदयी प्रकृति मिलकर २७ प्रकृतियाँ स्वोदय प्रकृतियाँ हैं अर्थात् इनका बन्ध स्वयं के उदय होने पर ही होता है, किन्तु उदय तो बन्ध के अभाव में भी होता है। अर्थात् इन प्रकृतियों के उदय होने में इन्हीं का बन्ध होना आवश्यक नहीं है। जैसे ज्ञानावरण ५, दर्शनावरण ४ और अन्तराय ५ इन १४ प्रकृतियों का बन्ध तो १०वें गुणस्थान तक होता है, किन्तु उदय १२वें गुणस्थान तक है। इसी प्रकार अन्य प्रकृतियों का भी जानना