Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
View full book text
________________
गोम्मटसार कर्मकाण्ड-४०७ ..
अर्थ- अन्य प्रकृति रूप परिणमने को संक्रमण कहते हैं। जिस प्रकृति का बंध होता है उसी में संक्रमण होता है अर्थात् अन्य प्रकृति बंधप्रकृति रूप होकर परिणमन करती है यह सामान्यकथन है तथा कहीं जिस प्रकृति का बंध नहीं हुआ है उसमें भी संक्रमण होता है। 'नो बंधे' अर्थात 'जिसका बंध नहीं हुआ है उसमें संक्रमण भी नहीं होता' इस वचन के कहने का अभिप्राय यह है कि दर्शनमोहनीय में सम्यग्मिथ्यात्व-सम्यक्त्व प्रकृति का बंध न होने पर भी मिथ्यात्व प्रकृति का द्रव्य संक्रमण कर जाता है अत: दर्शनमोहनीय के बिना शेष प्रकृतियाँ बंध होने पर उनमें ही संक्रमण रूप होती हैं ऐसा नियम है। मूलप्रकृतियों का परस्पर में संक्रमण नहीं होता। जैसे— ज्ञानावरणप्रकृति दर्शनावरणादिप्रकृति रूप नहीं होती, किन्तु उत्तरप्रकृतियों में संक्रमण पाया जाता है। जैसे- ज्ञानावरणकर्म की ५ उत्तरप्रकृतियों में परस्पर संक्रमण पाया जाता है। इसी प्रकार सभी उत्तरप्रकृतियों में जानना, किन्तु दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय में कदाचित् भी संक्रमण नहीं पाया जाता अर्थात् दर्शनमोहनीय की प्रकृतियाँ चारित्रमोहनीय रूप होकर परिणमन नहीं करती और चारित्रमोहनीय की प्रकृतियाँ दर्शनमोहनीय रूप होकर नहीं परिणमर्ती। चारों आयुओं में भी परस्पर संक्रमण नहीं होता। इस प्रकार संक्रमण का स्वरूप जानना ।
सम्म मिच्छं मिस्सं, सगुणवाणम्मि णेव संकमदि।
सासणमिस्से णियमा, दंसणतियसंकमो णत्थि ॥४११॥ अर्थ-सम्यक्त्व-मिथ्यात्व-सम्यग्मिध्यात्वप्रकृति अपने-अपने असंयतादि गुणस्थानों में संक्रमण नहीं करती। सम्यक्त्व प्रकृति का संक्रमण चतुर्थ गुणस्थान से सप्तमगुणस्थान पर्यंत नहीं होता है। दर्शनमोहनीय की इन तीनों ही प्रकृतियों का संक्रमण सासादन और मिश्रगुणस्थान में नहीं होता। सामान्य से दर्शनमोहनीय का संक्रमण चतुर्थ से सप्तमगुणस्थान पर्यंत होता है।
मिच्छे सम्मिस्साणं, अधापवत्तो मुहत्तअंतोत्ति।
उब्वेलणं तु तत्तो, दुचरिमकंडोत्ति णियमेण ॥४१२॥ अर्थ- मिथ्यात्वगुणस्थान को प्राप्त होने पर सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्वप्रकृति का अंतर्मुहूर्त पर्यंत अध:प्रवृत्तकरण संक्रमण होता है और उद्वेलन संक्रमण उपान्त्य (अन्त के समीपवर्ती अर्थात् द्विचरम) काण्डक पर्यंत नियम से होता है।
विशेषार्थ- यहाँ पर संक्रमण फालिरूप रहता है। एक समय में संक्रमण होने वाले प्रदेशपुंज को फालि कहते हैं। समय समूह में संक्रमण होने को काण्डक कहते हैं।
१. बन्धे संकमो अबन्धे णत्थेि। कुदो? सभावियादो । अर्थात् बन्ध के होने पर संक्रमण सम्भव है, बन्ध के अभाव में वह सम्भव नहीं है, क्योंकि ऐसा स्वभाव है । (ध.पु. १६, पृ. ३४०)