Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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म्मसार कर्मकाण्ड-३९६
आगे उन तीन चूलिकाओं में से सर्वप्रथम नवप्रश्न चूलिका कहते हैं
किं बंधो उदयादो, पुव्वं पच्छा समं विणस्सदि सो।
सपरोभयोदयो वा, णिरंतरो सांतरो उभयो ।३९९।।' अर्थ- पहले जो प्रकृतियाँ कहीं उनमें से उदयव्युच्छित्ति के पहले बन्धन्युच्छित्ति किन-किन प्रकृतियों की होती है? उदयव्युच्छित्ति के पश्चात् बन्धव्युच्छित्ति किन-किन प्रकृतियों की होती है? उदयव्युच्छित्ति के साथ-साथ बन्धव्युच्छित्ति किन-किन प्रकृतियों की होती है? इस प्रकार ये तीन प्रश्न हुए। जिनका अपना ही (स्वयं का ही) उदय होने पर बन्ध हो ऐसी कौन-कौन सी प्रकृतियाँ है? जिनका अन्य प्रकृतियों के उदय होने पर बंध हो ऐसी कौन-कौनसी प्रकृतियाँ हैं? जिनका दोनों (स्व-परप्रकृतियों) के उदय होने पर बन्ध हो ऐसी कौन-कौनसी प्रकृतियाँ हैं? इस प्रकार ये तीन प्रश्न हुए। जिनका निरन्तरबन्ध हो ऐसी कौन-कौनसी प्रकृतियाँ हैं? जिनका सान्तरबन्ध हो ऐसी कौन-कौनसी प्रकृतियाँ हैं? जिनका निरन्तर व सान्तरबन्ध हो ऐसी कौन-कौनसी प्रकृतियाँ हैं? इस प्रकार ये तीन प्रश्न हैं। ऐसे सर्व नौ प्रश्न हैं जिनका इस अधिकार में विचार किया जावेगा।
विशेषार्थ- नवप्रश्न चूलिका के नौ प्रश्न इस प्रकार हैं
जिनकी बन्धव्युच्छित्ति पहले तथा उदयव्युच्छित्ति बाद में होती है, जिनकी उदयव्युच्छित्ति पहले और बन्धव्युच्छित्ति बाद में होती है, जिनकी बन्ध-उदयव्युच्छित्ति युगपत् होती है, अन्य प्रकृति के उदय में ही जिनका बन्ध होता है, स्वोदय में ही जिनका बन्ध होता है, स्वोदय-परोदय में जिनका बन्ध होता है, जिनका अन्तर्मुहूर्तकाल आदिपर्यन्त बध होता हो ऐसी निरन्तर बंधने वाली, एक समय से लेकर अन्तर्मुहूर्त से कम काल पर्यंत जिनका बन्ध होता है ऐसी सान्तर बंधने वाली और जिनका कभी निरन्तर तथा कभी सान्तर बंध होता है, ऐसी कौन-कौन सी प्रकृतियाँ हैं। सान्तर-निरन्तर का लक्षण'
पड़िवक्खपयडिबन्धस्सिदूण थक्कमाणबंधश सांतरबंधि त्ति तं सांतरबंधीसु पडिवक्खपयडिबंधाविणाभावं दट्टण युत्तं । परमत्थदो पुण एगसमयं बंधिदूण विदियसमए जिस्से बंधविरामो दिस्सदि सा सांतरबंधपयडी। जिस्से बंधकालो जहण्णो वि अंतोमुत्तमेत्तो सा णिरंतरबंधपयडि त्ति घेत्तव्वं ।
१. प्रा. पं.सं. पृष्ठ ७४-७१ गाथा ६५-७७ तक मतप्रश्न । २. बंधो भूत्वा क्षणं यासां समानो निवर्तते । बंधाऽपूर्ते क्षणेनैता : सान्तरा विनिवेदिता ॥१९॥ अन्तर्मुहूर्तमात्रत्वाजघन्यस्यापि कर्मणां। सर्वेषा बंधकालस्य बन्धः सामायिकोऽस्ति यो ॥१०० ।।
- अमितगति कृत संस्कृत पंचसंग्रह अध्याय ३