Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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गोसार कर्मकाण्ड - ३९४
आचार्य कहते हैं, सो इनकी अपेक्षा ही ११ भंग हैं। मिश्र गुणस्थान में ३६, असंयत गुणस्थान में १२०, देशसंयत गुणस्थान में ४८, प्रमत्त व अप्रमत्तगुणस्थान में ४०-४०, अपूर्वकरण गुणस्थानवर्ती उपशमक के १६ और क्षपक में चार इस प्रकार २० स्थान । अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में उपशमक के पूर्वोक्त १६, क्षपक के ३६ तथा नपुंसकवेद में क्षपणास्थान के चार स्थानों में तीर्थङ्कररहित दूसरी व चौथी पंक्ति में स्त्री-पुंसक वेद के बदलने से दो भंग होते हैं तथा मायारहित चार स्थान के चार भंग ये सर्व मिलकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थान के ५८ भंग हैं। सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानवर्ती उपशमक में १६, क्षपक में चार इस प्रकार सर्व (१६+४) २० भंग हैं। उपशान्तमोहगुणस्थान में १६, क्षीणकषाय ८ स्थानों के ८ भंग, सयोगी गुणस्थान ४, अयोगी में ६ स्थानों आठ भंग जानना ।
अब सत्त्वस्थानाधिकार को पूर्ण करने के इच्छुक आचार्य इसके पढ़ने का फल बताते हैं
एवं सत्तट्ठाणं, सवित्थरं वण्णियं मए सम्मं ।
जो पइ सुइ भावड़, सो पावइ णिव्वुदिं सोक्खं ॥ ३९५ ॥
अर्थ - इस प्रकार सत्त्वस्थान का विस्तार सहित मैंने वर्णन किया। इसको सम्यक् प्रकार जो पढ़े, सुने अथवा भावना करे वह निर्वाण सुख को प्राप्त होता है ।
वरइंदणंदिगुरुणो, पासे सोऊण सबलसिद्धतं । सिरिकणयदिगुरुणा, सत्तट्ठाणं समुद्दिहं ॥३९६ ।।
अर्थ - आचार्यों में प्रधान श्रीमद् इन्द्रनंदी भट्टारक के पास सम्पूर्णसिद्धान्त को सुनकर श्रीकनकनंदि सिद्धान्तचक्रवर्ती के द्वारा यह सत्त्वस्थान सम्यक् प्रकार से प्ररूपण किया गया।
अब आचार्य स्वयं को चक्रवर्ती के समान बताते हुए इस सत्त्वस्थान कथन के अधिकार को समाप्त करते हैं—
जह चक्त्रेण य चक्की, छक्खंड साहियं अविग्घेण । तह मइचक्केण मया, छक्खंड साहियं सम्मं ॥ ३९७ ॥
अर्थ - जिस प्रकार चक्रवर्ती ने भरतक्षेत्र के छहखण डों को चक्ररत्न के द्वारा निर्विघ्नरूप से अपने वश में किया, उसी प्रकार मैंने भी बुद्धिरूपी चक्र से जीवस्थान - क्षुद्रकबन्ध-बन्धस्वामित्व-वेदनाखण्डवर्गणाखण्ड -महाबन्ध के भेद से षट्खण्डागमरूप शास्त्रसमुद्र में भले प्रकार अवगाहन किया है।
इस प्रकार आचार्य श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती विरचित गोम्मटसारकर्मकाण्ड की 'सिद्धान्तज्ञानदीपिका' नामा हिन्दी टीका में सत्त्वस्थानभंग प्ररूपक तृतीय अधिकार सम्पूर्ण हुआ।