Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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गोम्मटसार 'कर्मकाण्ड-३९३
अर्थ- कोई आचार्य "अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में मायाकषाय रहित चार स्थान हैं" ऐसा मानते हैं। तथा कोई आचार्य स्थानों को भंग के प्रमाण अर्थात् दोनों की एक सी संख्या मानते हैं। इस प्रकार की मान्यता होने पर स्थान और भंगों की संख्या कहते हैं--
अट्ठारह चउ अटुं, मिच्छतिये उवरि चाल चउठाणे।
तिसु उवसमगे संते, सोलस सोलस हवे ठाणा ॥३९३ ।। अर्थ- मिथ्यात्वादि तीन गुणस्थानों में पूर्वोक्त प्रकार १८-४ और ८ स्थान हैं। आगे असंयतादि चार गुणस्थानों में ४०-४० स्थान हैं। उपशमकअपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसाम्पराय तथा उपशान्तमोह इन चार गुणस्थानों में १६-१६ स्थान हैं।
विशेषार्थ- मिथ्यात्व गुणस्थान में १८, सासादन गुणस्थान में ४, मिश्र गुणस्थान में ८, असंयत गुणस्थान में ४०, देशसंयत गुणस्थान में ४०, प्रमत्तगुणस्थान में ४०, अप्रमत्त गुणस्थान में ४० स्थान हैं। उपशमकअपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसाम्पराय, उपशांतमोह इन चारों गुणस्थानों में अनन्तानुबन्धी के सत्त्वरहित बद्धायुष्क-अबद्धायुष्कसम्बन्धी चार-चार पंक्तियों के आठ-आठ स्थान होने से १६-१६ स्थान होते हैं अतः सर्व ३२ स्थान हुए। क्षपकअपूर्वकरण में पूर्वोक्त चार स्थान हैं, क्षपकअनिवृत्तिकरण में ३६ स्थान तो पूर्वोक्त और सज्वलनमायारहित चार स्थान जो सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान में कहे थे वे यहाँ अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में ही कहे हैं। इस प्रकार पूर्वोक्त ३६ और मायाकषायरहित ४ ऐसे (३६+४) ४० स्थान हैं। क्षपकसूक्ष्मसाम्पराय में चार, क्षीणकषाय में आठ, सयोगी के चार और अयोगी के पूर्वोक्त ६ स्थान जानना। अब इन स्थानों के भंगों की संख्या कहते हैं
पण्णेकारं छक्कदि, बीससयं अट्ठदाल दुसु तालं ।
वीसडवण्णं वीसं, सोलट्ठ य चारि अट्टेव ।।३९४ ॥ अर्थ- मिथ्यात्वादि गुणस्थानों के क्रम से पूर्वोक्त प्रकार ५०-११-३६-१२०-४८-४०-४० तथा उपशम-क्षपक इन दोनों श्रेणियों के मिलकर २०-५८-२०-१६-८-४-८ भंग जानना। यहाँ पर गुरुओं के सम्प्रदाय भेद से अनेक प्रकार का क्रथन किया है वह भी श्रद्धा करने योग्य है, क्योंकि इनकी अपेक्षा का निश्चय साक्षात केवली-श्रुतकेवली बिना नहीं हो सकता है।
विशेषार्थ- इन स्थानों के भंग पूर्वोक्त प्रकार मिथ्यात्व गुणस्थान में ५०, सासादन गुणस्थान में १२, इनमें से बद्धायुष्क सम्बन्धी स्थान में देव अपर्याप्तक भेद निकालकर ११ भंग हैं। जिसके देवायु का बन्ध हुआ है ऐसे द्वितीयोपशमसम्यग्दृष्टि जीव का सासादन गुणस्थान में मरण नहीं होता ऐसा कोई