Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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गोम्मटसार कर्मकाण्ड-३९१
घटाने पर १०१-१००-९७ और ९६ प्रकृति रूप स्थान क्षीणकषाय गुणस्थान के द्रिचरमसमयपर्यन्त रहते हैं और इन चारों स्थानों में निद्रा-प्रचलाप्रकृति घटाने पर ९९-९८-९५ और ९४ प्रकृति रूप धार स्थान क्षीणकषाय गुणस्थान के चरम समय में होते हैं।
आगे सयोगी-अयोगीगुणस्थान में स्थान और भंग कहते हैंते चोद्दसपरिहीणा, जोगिस्स अजोगिचरिमगेवि पुणो।
बावत्तरिमडसट्टि, दुसु दुसु हीणेसु दुगदुगा भंगा॥३९० ॥ अर्थ- क्षीणकषाय गुणस्थान के चरम समय संबंधी चार स्थानों में १४ प्रकृतियाँ कम करने पर ८५ आदि प्रकृति रूप चार स्थान सयोगकेवली गुणस्थान में होते हैं और वे अयोगकेवली के द्विचरमसमयपर्यंत रहते हैं। पुन: अयोगकेवली के द्विघरमसमय सम्बन्धी चार स्थानों में से प्रथम और द्वितीय स्थान में ७२ प्रकृतियाँ तथा तीसरे-चौथे स्थान में ६८ प्रकृतियाँ घटाने पर १३-१२-१३-१२ ये चार स्थान अयोगकेवली के अन्तिम समय में होते हैं। यहाँ पुनरुक्तता होने से दो ही स्थान जानना। अंतिम दो समयवर्ती जो दो-दो स्थान हैं उनमें दो-दो भंग है।
विशेषार्थ- क्षीणकषाय गुणस्थान के चरमसमय सम्बन्धी चार स्थानों में से ज्ञानावरण ५, दर्शनावरण ४ और अन्तराय ५ ये १४ प्रकृति घटाने पर ८५-८४-८१ और ८० प्रकृति रूप चार स्थान सयोगीगुणस्थान में और अयोगी गुणस्थान के द्विचरमसमयपर्यन्त रहते हैं तथा इनमें पहले स्थान में ७२ प्रकृतियाँ और दूसरे स्थान में भी ७२ प्रकृतियाँ घटाने से ५३ व १२ प्रकृतिरूप दो स्थान होते हैं और तृतीय-चतुर्थस्थान में ६८ प्रकृतियाँ घटाने से १३ व १२ प्रकृति रूप दो स्थान होते हैं।
बिदियंतेरसबारसठाणं पुणरुत्तमिदि विहायपुणो।
दुसु सादेदरपयडी, परियट्टणदो दुगदुगा भंगा ।।३९० क॥ अर्थ-- अयोगीजिन के तृतीय व चतुर्थ स्थान में जो दुबारा १३ व १२ प्रकृति के स्थान बने हैं वे पुनरुक्त होने से छोड़ने योग्य हैं। इन १३ व १२ प्रकृति के सत्त्व स्थानों में साता व असातावेदनीय प्रकृतियों के बदलने से दो-दो भंग जानना। किसी जीव के साता का ही सत्त्व रह जाय और अन्य किसी जीव (अयोगीजिन) के असातावेदनीय का सत्त्व रह जाता है। इस प्रकार साता व असाता की अपेक्षा दो-दो भंग होते हैं।
आगे "दुगछक्कतिण्णिवग्गे" इत्यादि गाथा ३८३ में पहले अनन्तानुबन्धी सहित आठ स्थान उपशमश्रेणी वालों के कहे थे वे श्री कनकनन्दी आचार्य के पक्ष में नहीं हैं इत्यादि विशेषकथनपूर्वक उन आठ स्थानों के भंग चार गाथाओं में कहते हैं