Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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गोम्मटसार कर्मकाण्ड-३४९ वैक्रियिकअंगोपांग, वैक्रियिकबन्धन, वैक्रियिकसंघात इन १७ प्रकाबिना १३६ प्रतिरूप जानना, यहाँ भुज्यमानतिर्यञ्चायु-बध्यमानतिर्यञ्चायु, भुज्यमानतिर्यञ्चायु-बध्यमानमनुष्यायुरूप दो भंग हैं, किन्तु भुज्यमानतिर्यञ्चायु, बध्यमानतिर्यञ्चायु यह भंग पुनरुक्त होने से एक ही भंग समझना । अथानन्तर अबद्धायुष्क की अपेक्षा दो भङ्ग कहते हैं
णारकछक्कुव्वेल्ले, आउगबंधुज्झिदे दु भंगा हु।
इगिविगलेसिगिभंगो, तम्मि णरे विदियमुप्पण्णे ॥३७०।। अर्थ- अबद्धायुष्क की अपेक्षा आठवें सत्त्वस्थान में आयुबन्ध के बदलने से दो भंग होते हैं। उनमें से नरकगति आदि ६ प्रकृतियों की उद्वेलना करने वाले एकेन्द्रिय या विकलेन्द्रियजीब के अपनी ही पर्याय में १३० प्रकृति रूप स्थान होना प्रथम भंग है तथा वही जीव मरणकर मनुष्य हुआ वहा आयु के बदलने से १३० प्रकृतिरूप स्थान होना दूसरा भंग है।
विशेषार्थ- अबद्धायुक की अपेक्षा अष्टमसत्त्वस्थान भुज्यमानआयु के बिना तीन आयु और आहारकचतुष्कआदि १५ प्रकृतिबिना ५३० प्रकृतिरूप जानना। यहाँ भङ्ग २ हैं। नारकषट्क (नरकगतिनरकगत्यानुपूर्वी, वैक्रियिकशरीर-वैक्रियिकअगोपांग, वैक्रियिकबन्धन, वैक्रियिकसंघात) की उठूलना होने पर एकेन्द्रिय था विकलत्रयजीव के तिर्यञ्चायुबिना ३ आयु और आहारकचतुष्टयआदि १५ इस प्रकार १८ प्रकृति के बिना १३० प्रकृति का सत्त्व पाया जाता है, यह एक भंग है तथा वही एकेन्द्रिय या विकलत्रयजीव मरणकर मनुष्य में उत्पन्न हुआ वहाँ अपर्याप्तकाल में मनुष्यायु के बिना तीन आयु और आहारकचतुष्क आदि १५ प्रकृति के बिना १३० प्रकृति का सत्त्व पाया जाता है यह दूसरा भंग है।
बद्धायुष्क की अपेक्षा नवमसत्त्वस्थान उच्चगोत्र की उद्वेलना होने पर तेजकाय-वायुकायजीवों में पाया जाता है, यह पूर्वोक्त १३० प्रकृतियों में से उच्चगोत्र का अभाव होने से १२९ प्रकृति रूप है, यहाँ भंग एक ही है। भुज्यमानतिर्यञ्चायु, बध्यमानतिर्यञ्चायुरूप भंग पुनरक्त है। यहाँ अन्य प्रकार कोई भंग नहीं है इसलिए इसी का ग्रहण करना। तथैव अबद्धायुष्क की अपेक्षा ९ वा सत्त्वस्थान १२९ प्रकृतिरूप ही है। यह स्थान बद्धायुष्क के समान ही है अतः पुनरुक्त होने से इस स्थान का ग्रहण नहीं करना।
___ बद्धायुष्क की अपेक्षा १० वा सत्त्वस्थान मनुष्यद्विक की उद्वेलना होने पर अग्निकायवायुकावजीवों में पाया जाता है। यह स्थान पूर्वोक्त ५२९ प्रकृति में से मनुष्यगति-मनुष्यगत्यानुपूर्वी के बिना १२७ प्रकृति के सत्त्ववाला है। यहाँ पर भी भंग एक ही है। तथैव अबद्धायुष्ककी अपेक्षा भी १० वाँ सत्त्वस्थान पूर्वोक्त १२७ प्रकृतिरूप ही जानना । इस प्रकार बद्धायुष्क-अबद्धायुष्ककी अपेक्षा इस