Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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गोम्मटसार कर्मकाण्ड-३६९
बद्धायुष्कके द्वितीयपंक्तिसम्बन्धी पाँच सत्त्वस्थानोंमें भुज्यमान-बध्यमानआयुबिना दो आयु और तीर्थंकरप्रकृतिरहित १४५ प्रकृतिरूप प्रथम स्थान है, अनन्तानुबन्धीका विसंयोजन होनेपर १४१ प्रकृतिरूप दूसरास्थान है। मिथ्यात्वगुणस्थानमें जिसप्रकार १४५ प्रकृतिके सत्त्वस्थानमें चारोंगतिसम्बन्धी १२ भंगोंमें से दो पुनरुक्त और ५ समभंगबिना पाँच भंग ग्रहण किये थे उसीप्रकार इनदोनों स्थानोंमें भी ५-५ भंग जानना । मिथ्यात्वप्रकृतिका क्षय होने पर १४० प्रकृतिरूप तृतीयस्थान है, यहाँ भुज्यमानमनुष्यायु
और बध्यमाननरकायु-तिर्यञ्चायु-देवायु तथा मनुष्यायुकी अपेक्षा चार भङ्ग होते हैं। इनमें भुज्यमानमनुष्यायु-बध्यमानमनुष्यायु यह भङ्ग पुनरुक्त है और प्रकृतिसमान होनेसे इसके बिना शेष तीन भङ्ग ग्रहण करना । सम्यग्मिथ्यात्व-प्रकृतिका क्षय होने पर १३९ प्रकृतिरूप चतुर्थस्थान है यहाँ भी पूर्वोक्त तीनभङ्ग जानना। सम्यक्त्वप्रकृतिका क्षय होने पर १३८ प्रकृतिरूप पाँचवाँस्थान है, यहाँ भुज्यमाननरकायुबध्यमानमनुष्यायु, भुज्यमानतिर्यञ्चायु-बध्यमानदेवायु, भुज्यमानमनुष्यायु-बध्यमाननरकायु, भुज्यमानमनुष्यायु-बध्यमानतिर्यवायु, भुज्यमानमनुष्यायु-बध्यमानमनुष्यायु, भुज्यमानमनुष्यायुबध्यमानदेवा, भुज्यमानदेवायु-वध्यमानभनु यायु इन सात भङ्गों में पाँचवाँभग पुनरुक्त है, क्योंकि एकमनुष्यायु ही है तथा प्रथम व तृतीयभङ्ग समान है, छठा और सातबाँभङ्ग भी समान है, क्योंकि इनमें प्रकृतियोंकी समानता है अत: इन तीनभंगबिना यहाँ ४ ही भंग ग्रहण करना | चारोंगतिसम्बन्धी पूर्वोक्त १२ भंगोंमें से यहाँ पाँचभंग नहीं होते, क्योंकि तिर्यञ्चायु-नरकायु का भंग सम्भव नहीं है, इसलिए उपर्युक्त ७ भंगों में से चार ही भंग कहे हैं।
___ अबद्धायुष्ककी अपेक्षा द्वितीयपंक्तिसम्बन्धी पाँचस्थानोंमें भुज्यमानआयुबिना तीनआयु और तीर्थङ्करप्रकृतिबिना १४४ प्रकृतिरूप प्रथमस्थान, अनन्तानुबन्धीकी विसयोजना होनेपर १४० प्रकृतिरूप द्वितीयस्थान है। इन दोनों स्थानों में भुज्यमान-चारोंआयुकी अपेक्षा चार-चार भंग हैं तथा मिथ्यात्वप्रकृति का क्षय होनेपर १३९ प्रकृतिरूप तीसरास्थान है यहाँ भुज्यमानमनुष्यायुबिना अन्यभंगका अभाव है इसलिए एक ही भंग है। सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृतिका क्षय होने पर १३८ प्रकृतिरूप चतुर्थस्थान है यहाँ भुज्यमानमनुष्यायु और कृतकृत्यवेदकसम्यग्दृष्टिकी अपेक्षा भुज्यमाननरकायु-तिर्यञ्चायु और देवायुरूप चारभंग हैं। सम्यक्त्वप्रकृतिका क्षय होनेपर क्षायिकसम्यग्दृष्टिके १३. प्रकृतिरूप पाँचवाँस्थान है। यहाँ भुज्यमान चार आयु की अपेक्षा चार भंग हैं।
बद्धायुष्क-अबद्धायुष्ककी अपेक्षा तृतीयपंक्तिमें आहारकचतुष्करूप चार-चार प्रकृति घटाने पर दस स्थान होते हैं। यहाँ प्रथमपंक्तिके समान २३ भंग जानने, क्योंकि यहाँपर भी तीर्थङ्करप्रकृतिका सत्त्व है।
चतुर्थपंक्ति में बद्धायुष्क व अबद्धायुष्क की अपेक्षा दस स्थानों में तीर्थकर व आहारकचतुष्करूप पाँच-पाँच प्रकृति घटाने पर दस स्थान होते हैं। यहाँ द्वितीयपंक्ति के समान ३७ भंग जानना, क्योंकि यहाँ पर तीर्थंकर प्रकृति का सत्त्व नहीं है। इस प्रकार असंयतगुणस्थानमें सर्वमिलकर ४० सत्त्वस्थान और उनके १२० भंग हैं।