Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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मिथ्यात्व
मिथ्यात्व
अबद्धायुष्क की अपेक्षा
द्वितीय स्थान
बढायुष्क की
अपेक्षा तृतीय स्थान
गोम्मटसार कर्मकाण्ड - ३५३
१ न.
१ ति.
१ म.
१ दे.
४
१४४
*
१४४ (१४८-४, भुज्यमान आयु बिना शेष ३ आयु, तीर्थङ्कर)
१४५ प्रकृति की सत्तासहित पूर्वोक्त जीवकी १४५ सत्त्व प्रकृतियों में से बध्यमान आयु कम ' करने से अबद्धायुष्क के १४४ प्रकृति की सत्ता रही अतः गति की अपेक्षा (८-९-१०११) ४ भट्ट होते हैं ।
१४२ (१४८- ६, तिर्यञ्च व देवायु और आहारकचतुष्क)
कोई मिथ्यादृष्टिमनुष्य पहले अग्रमत्त गुणस्थानको प्राप्त हुआ, किन्तु वहाँ उसने आहारकचतुष्क का बन्ध नहीं किया और मिथ्यात्वगुणस्थान को पुनः प्राप्त कर लिया। अथवा अपसगुणस्थान में आहारकचतुष्क का बन्ध कर लिया पश्चात् मिथ्यात्व गुणस्थान में आकर पश्चात् असंख्यात वर्षों में आहारकचतुष्ककी उद्वेलना कर मनुष्यों में उत्पन्न हुआ। वहाँ नरकायु का बन्ध करके पश्चात् वेदकसम्यग्दृष्टि होकर केवली - श्रुतकेवली के पादमूल में षोडशकारणभावना भाकर तीर्थप्रकृति का बन्ध प्रारम्भकरके उस कर्म से सहित होकर द्वितीय तृतीय नरकको जानेवाला जीव भुज्यमान आयु का अन्तर्मुहूर्त अवशिष्ट रहने पर मरण से पूर्व मिथ्यात्व में आ गया। उसके १४२ प्रकृति का सच होता है तथा जिस मनुष्य ने देवायु का बन्ध कर लिया है एवं तीर्थकर प्रकृति का बन्ध आरम्भ कर लिया हो उसके सम्यक्त्व नहीं छूटता है तथा उसके प्रतिसमय आठवर्ष व एक अन्तर्मुहूर्तकम दोकोटि पूर्वसहित ३३ सागरपर्यन्त उत्कृष्टरूप से तीर्थकर प्रकृति का बन्ध समयप्रबद्ध में होता रहेगा। इस प्रकार नारकी होने वाले जीव के ही यह भव सम्भव है ।