Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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अर्थ - सासादनगुणस्थान में तीर्थकर और आहारकद्विक, मिश्रगुणस्थान में तीर्थकर, देशसंयत गुणस्थान में नरकायु, प्रमत्त अप्रमत्तगुणस्थान में नरकायु-तिर्यञ्चायु और उपशमश्रेणी में नरका, तिर्यञ्चायु अनन्तानुबन्धीचतुष्क ये ६ तथा 'च' कार से क्षपकश्रेणी में दस थे दुगे इत्यादि गाथा ३६० के पूर्वार्ध के इन वचनानुसार क्रम की हुई प्रकृतियाँ जानना |
गुणस्थानों में सत्त्वस्थानगत सत्त्व असत्त्वप्रकृतिसम्बन्धी सन्दृष्टि
गोम्मटसार कर्मकाण्ड - ३३९
आगे जिन गुणस्थानों में जो प्रकृतियां कम की गई हैं, उनके नाम कहते हैंसासणमिस्से देसे, संजददुग सामगेसु णत्थी य ।
तित्थाहारं तित्थं, णिरयाऊ णिरयतिरिय आउअणं ।। ३६१ ।।
गुणस्थान
मिथ्यात्व
सासादन
मिश्र
असंयत
देशसंयत
प्रमत्त
अप्रमत्त
१. अपूर्वकरण
सामान्य से उपशम
श्रेणी की अपेक्षा
२. अनन्तानुबन्धी के विसंयोजक के उपशम श्रेणी की अपेक्षा
३. क्षायिक सम्यग्दृष्टि (उपशमश्रेणी
आरोहक ) की अपेक्षा
असत्त्व
Q
३
१,
D
१
२
२
६
९
सत्त्व
१४८
१४५
१४७
१४८
१४७
१४६
१४६
१४६
१४२
१३९
विशेष
३ (तीर्थंकर आहारकद्विक)
१. ( तीर्थंकर)
१ (नरकायु)
२ ( नरक - तिर्यञ्चायु)
२ ( नरक - तिर्यञ्चायु)
२ ( नरक - तिर्यञ्चायु) उस मत के अनुसार जो द्वितीयोपशम सम्यक्त्व में अनन्तानुबन्धी की विसंयोजना का नियम स्वीकार नहीं करता ।
६ (नरक - तिर्यञ्चायु + ४ अनन्तानुबन्धी) उपशमश्रेणी चढ़ने के पहले चार अनन्तानुबन्धी की विसंयोजना हो जाती है।
९ ( नरक - तिर्यञ्चावु, दर्शनमोहनीय की ३, अनन्तानुबन्धी ४ )