Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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मासा किया ३७
अथ सत्त्वभंगाधिकार
अब नेमिचन्द्राचार्य मंगलाचरणपूर्वक कर्मप्रकृतियों के भङ्गसहित सत्त्वस्थानों को कहने की प्रतिज्ञा करते हैं
णमिऊण बड्ढमाणं, कणयणिहं देवरायपरिपुजं ।
पयडीण सत्तठाणं, ओघे भंगे समं वोच्छं ।।३५८।। गाथा- (मैं ग्रन्थकर्ता नेमिचन्द्र आचार्य) स्वर्ण के समान शरीरवर्णवाले, इन्द्रद्वारा पूजित वर्धमानतीर्थङ्करदेव को नमस्कार करके गुणस्थानों में प्रकृतियों के भगसहित सत्त्व स्थानों को कहूँगा।
विशेषार्थ- एक जीव के एक काल में जितनी कर्मप्रकृतियों की सत्ता पाई जावे उनके समूह का नाम स्थान है। इस प्रकार अन्ध-अन्य संख्या को लिये हुए कर्मप्रकृतियों की जो सत्ता पायी जाने वह अन्य-अन्य सत्त्वस्थान कहलाते हैं तथा उस सत्त्वस्थान की समान संख्यारूप कर्मप्रकृतियों में संख्या तो समान ही रहे, किन्तु प्रकृतियाँ बदल जाय उसे भग कहते हैं। जैसे- किसी जीव के १४६ प्रकृति की सत्ता है और किसी के १४५ प्रकृति की सना हो तो ये स्थान तो दो हुए, किन्तु उस एक स्थान की संख्या में जैसे कि ५४५ प्रकृति की सत्तावाले स्थान में किसी के तो मनुष्यायु तथा देवायुसहित १.४५ प्रकृति की सत्ता है, तथा किसी के तिर्यञ्चायु और नरकायु की सत्तासहित १४५ प्रकृति की सत्ता है। अत: वहाँ पर स्थान तो एक ही रहा, क्योंकि संख्या तो एक है, किन्तु प्रकृतियों के बदलने से भङ्ग दो हुए । इसी प्रकार सर्वत्र स्थान और भङ्ग समझना। अथानन्तर गुणस्थानों में सत्त्वस्थान और भङ्गों के कहने का विधान बताते हैं
आउगबंधाबंधणभेदमकाऊण वण्णणं पढमं ।
भेदेण य भंगसमं परूवणं होदि बिदियम्हि ॥३५९।। अर्थ - यहाँ प्रकृतियों के सत्त्वस्थान और भलों का वर्णन दो प्रकार से समझना। आयु के बन्ध और अबन्ध के भेद की अपेक्षा नहीं करके प्रथमवर्णन तथा आधुबन्ध के भेद सहित उसकी अपेक्षा रखकर दूसरा वर्णन है। अब इन दोनों पक्षों में से पहले सामान्य से प्रथमपक्ष के अनुसार सत्ता का विधान करते हैं
सव्वं तिगेग सव्वं चेगं छसु दोण्णि चउसु छद्दस य दुगे। छस्सगदालं दोसु तिसट्ठी परिहीण पडि सत्तं जाणे ॥३६०।।