Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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गोम्मटसार कर्मकाण्ड-२२५
ऐसे प्रथम गुणहानि पर्यन्त दोनों पंक्तियों में तो दूना-दना प्रमाण लिखकर उन दोनों पंक्तियों के एक-एक स्थान का प्रमाण मिलाने पर तथा पहले हुई गुणहानियों का सर्वद्रव्य मिलाने पर जो प्रमाण हो उतना-उतना त्रिकोण रचना में क्रम से पंक्तियों का जोड़ जानना । ९। १९।३०। ४२०५५/६९१ ८४। १००।११८। १३८। १६०। १८४। २५०। २३८। २६८। ३००। ३३६॥ ३७६। ४२०। ४६८। ५२०१५७६) ६३६।७००।७७२। ८५२ ९४०। २०३६। ११४०। १२५२। १३७२। १५००। १६४४॥ १८०४।१९८०१ २१७२। २३८०१ २६०४।२८४४। ३१००।३३८८॥ ३७०८४४०६०/ ४४४४। ४८६०।५३०८५७८८। ६३००। इन सर्वका जोड़ करने पर जो प्रमाण हो उतना त्रिकोणयन्त्रसम्बन्धी कुल जोड़ होता है, सो यह जोड़ किंचित् ऊन डेढ़गुणहानि से गुणित समयप्रबद्धप्रमाण होता है। सर्वत्रिकोणरचना के द्रव्य का जोड़ ७१,३०४ है तथा गुणहानि आयाम के प्रमाण ८ को डेढ़गुणा करने से (८४) १२ इसी व्यर्ध (डेढ़) गुणहानि से समयप्रबद्ध ६३०० को गुणा करने पर ६३००४१२=७५,६०० लब्ध होता है, किन्तु यहाँ पर तो सर्वद्रव्य का प्रमाण ७१,३०४ ही है। इसका कारण यह है कि यहाँ गुणकार किंचित्ऊन कहा है। यहाँ त्रिकोणरचना का जो सर्व जोड़ है वही सत्तारूप द्रव्य जानना। सो असन्दृष्टि द्वारा जैसे कथन किया वैसे ही अर्थसन्दृष्टि की अपेक्षा भी सर्वकथन है। निषेकादिका प्रमाण जैसा हो वैसा ही जानना तथा अन्य सर्वविधान अङ्कसन्दृष्टिवत जानना |
इस प्रकार कुछकम डेढ़ गुणहानि से गुणित समयप्रबद्धप्रमाण कर्मकी सत्ता जीव के सदैव पायी जाती है। गुणहानिआयाम के समयों का जो प्रमाण है उसको डेढगुणा करके उसमें से किंचित्ऊन अर्थात् पल्य की संख्यातवर्गशलाका से अधिक गुणहानिआयाम का १८ वाँ भाग घटाना और उससे समयप्रबद्धप्रमाण को गुणा करने पर जो प्रमाण हो उतने कर्मपरमाणु जीव के साथ सदाकाल रहते हैं। इसी से सर्वस्थितिसम्बन्धी अनुभागबन्धाध्यवसायस्थानों से कर्मप्रदेश अनन्तगुणे कहे हैं। जैसे समयसमय में एक-एक नवीनसमयप्रबद्ध बँधते हैं वैसे ही एक-एक समयप्रबद्ध उदयरूप होकर खिरते हैं तथापि सत्ता पूर्वोक्त प्रमाण सदा बनी रहती है। एक समय में एकसमयप्रबद्ध की निर्जरा (खिरना) किस प्रकार होती है, सो कहते हैं
वर्तमान विवक्षितसमय में जिस समयप्रबद्ध का बन्ध होने पर आबाधाकाल भी हो गया और जिसका पहले एक भी निषेक नहीं खिरा उसके तो ५१२ रूप प्रथमनिषेक उदयरूप होता है और शेष निषेक आगामी काल में उदय में आवेंगे तथा जिस समयप्रबद्ध का बन्ध होने पर आबाधाकाल और एक समय हो गया हो एवं जिसके एकनिषेक पहले खिर गया हो उसका ४८० रूप दूसरानिक वर्तमान समय में उदय आता है। ४६ निषेक आगे उदय में आवेंगे तथा जिस समयप्रबद्धको बन्ध होने के बाद आबाधाकाल और दो समय व्यतीत हो गए हों उसके २ निषेक तो पहले खिरे और ४४८ रूप तीसरानिषेक वर्तमान समय में खिरता है, शेष ४५ निषेक आगामी काल में खिरेंगे। इसी क्रम से जिसजिस समयप्रबद्ध का बन्ध पहले-पहले हुआ उसका पिछला-पिछला निषेक वर्तमान काल में उदय होता