Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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गोम्मटसार कर्मकाण्ड-३१६
अर्थ- उपशमविधान में भी क्षपणाविधान के समान क्रम जानमा, किन्तु विशेष बात यह है कि सज्वलनकषाय और पुरुषवेद के मध्य में बीच के जो अप्रत्याख्यान तथा प्रत्याख्यानकषायसम्बन्धी दो-दो क्रोधादि हैं सो पहले उनको क्रम से उपशमन करता है पश्चात् सञ्चलनक्रोधादि का उपशम करता है। (इसका विशेष कथन गाथा ३३७ के विशेषार्थ कर चुके हैं।)
विशेषार्थ- नपुंसकवेद, स्त्रीवेद, हास्यादि ६ नोकषाय, पुरुषवेद का अनुक्रम से उपशम होता है और पुरुषवेद को उपशमाने के अनन्तर उस पुरुषवेद का नवकसमय-प्रबद्धरूप बन्धसहित मध्यमअप्रत्याख्यान व प्रत्याख्यान क्रोध का उपशम करता है। यहाँ जो तत्कालीन नवीनबन्ध हुआ उसका नाम नवकबन्ध है तथा जो पुरुष वेद का नवीन बन्ध हुआ उसके निषेक पुरुषवेद को उपशमाने के काल में उपशमावने योग्य न हुए क्योंकि अचलावली में कर्मप्रकृति को अन्यथारूप परिणमाने के लिए असमर्थता है, इससे पुरुषवेद के निषेक मध्यमक्रोधयुग्म को उपशमानने के काल में उपशमाते हैं। इसीप्रकार सज्वलनक्रोधादि के नक्कबन्ध का स्वरूप यथावस्थित जानना। उसके अनन्तर सञ्चलनक्रोध का उपशम होता है, इसके अनन्तर इसी सवलनक्रोध के नवकबन्धसहित मध्यमरूप अप्रत्याख्यानमान
और प्रत्याख्यानमान का उपशमाता है। उसके अनन्तर सञ्चलनमान का उपशम होता है। इसके पश्चात् उस सञ्चलनमान के नवकबन्धसहित मध्यमअप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यानमायायुगल का उपशम होता है तथा इसके पश्चात् सञ्चलनमाया का उपशम होता है। तदनन्तर सञ्वलनमाया का नवकबन्धसहित मध्यम अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यानलोभ का उपशम होता है। उसके अनन्तर बादरसञ्चलनलोभ को उपशमाता है। ऐसी विशेषता मोहनीय कर्म में ही जानना, इसीलिए मोहनीय के बिना अन्य कर्मों का उपशम विधान नहीं है। इसप्रकार उपशमश्रेणी में मोह का उपशम होता है, सत्ता का नाश नहीं होता अत: अपूर्वकरण से उपशान्तकषाय गुणस्थानपर्यन्त उपशमश्रेणीवाले के नरकायु तिर्यञ्चायु बिना १४६ प्रकृति की सत्ता जानना तथा जिसने अनन्तानुबन्धीकषाय की विसंयोजना कर दी हो उसके १४२ प्रकृति की सत्ता होती है। क्षायिकसम्यग्दृष्टि उपशमश्रेणीवाले के १३८ प्रकृति की सत्ता अपूर्वकरण से उपशान्तकषायगुणस्थानपर्यन्त जानना जिसके आयुबन्ध ही न हुआ हो; उस ही क्षायिकसम्यग्दृष्टि के असंयतादि चारगुणस्थानों में भी १३८ प्रकृति की ही सत्ता जानना, किन्तु जिसके देवायु का बन्ध हो गया हो उसके १३९ का सत्त्व जानना ।
णिरयादिसु पयडिट्ठिदिअणुभागपदेसभेदभिण्णस्स।
सत्तस्स य सामित्तं, णेदव्वमिदो जहा जोग्गं ।।३४४|| अर्थ- नरकगति आदि मार्गणाओं में भी प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश इन चारभेदों से सहित जो प्रकृतियों का सत्त्व है, वह यथायोग्य समझना।