Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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गोम्मटसार कर्मकाण्ड-३३१
सवेदअनिवृत्तिकरणपर्यन्त गुणस्थान ९ हैं। यहाँ सत्त्वादि का सर्वकथन गुणस्थानवत् (गाथा ३४२ की सन्दृष्टि के अनुसार) जानना। नपुंसकवेद में और स्त्रीवेद में सत्त्वप्रकृति १४८ हैं, गुणस्थान आदि के ९ किन्तु यहाँ णवरि संढथीखवगे इन वचनों से क्षपकश्रेणी में तीर्थङ्करप्रकृति का सत्त्व नहीं है, क्योंकि तीर्थङ्करप्रकृति का सत्त्व होने पर नपुंसक और स्त्रीवेद के उदय से संक्लिष्टपरिणामीजीव के क्षपकश्रेणी में आरोहण का अभाव है इसलिए क्षपकअपूर्वकरणादिगुणस्थानों में गुणस्थानोक्त सत्त्वप्रकृतियों में एकएक प्रकृति से हीन सत्व जानना। शेष सर्वकथन गुणस्थानवत् (गाथा ३४२ की सन्दृष्टि अनुसार)जानना।
कषायमार्गणा में सत्त्वप्रकृति १४८, गुणस्थान क्रोध-मान-माया कषाय में तो मिथ्यात्व से अनिवृत्तिकरणपर्यन्त ९ हैं, किन्तु लोभकषाय में सूक्ष्मसाम्पराय पर्यन्त १० गुणस्थान हैं। सत्त्वादि का सर्वकथन गुणस्थानवत् (गाथा ३४२ की सन्दृष्टि के अनुसार) जानना।।
ज्ञानमार्गणा में कुमति, कुश्रुत और कुअवधि (विभङ्ग) ज्ञान में सत्त्व १४८ प्रकृति का, मिथ्यात्व और सासादन ये दो गुणस्थान। यहाँ मिथ्यात्वगुणस्थान में असत्त्व नहीं है, सत्त्वप्रकृति १४८ हैं। सासादनगुणस्थान में असत्त्व आहारकद्रिक व तीर्थङ्कर इन ३ प्रकृति का और सत्त्व १४५ प्रकृति का । मति-श्रुत-अवधिज्ञान में सत्त्वयोग्य प्रकृति १४८, गुणस्थान असंयत से लेकर क्षीणमोह पर्यन्त ९ हैं। सत्त्वादि का सर्वकथन गुणस्थानवत् (गाथा ३४२ की सन्दृष्टि अनुसार) जानना। मनःपर्ययज्ञान में नरक
और तिर्यञ्चायु के बिना सत्त्व १४६ प्रकृति का है, गुणस्थान प्रमत्त से क्षीणकषाय पर्यन्त ७ हैं। यहाँ सत्त्व तो गुणस्थानवत् ही जानना, किन्तु असत्त्व गुणस्थानोक्त असत्त्वरूप प्रकृतियों में दो-दो प्रकृतिकम जानना। केवलज्ञान में सत्त्वयोग्य प्रकृति ८५, गुणस्थान सयोगी-अयोगी ये दो हैं। यहा सत्त्व तो गुणस्थानवत् ही है, किन्तु असत्त्व सयोगी गुणस्थान में नहीं है और अयोगीगुणस्थान के भी द्विचरमसमयपर्यन्त तो असत्त्व नहीं है किन्तु चरमसमय में ७२ प्रकृति का असत्त्व है।
संयममार्गणा में सामायिक-छेदोपस्थापनासंयम में नरक-तिर्यञ्चायु बिना सत्त्वयोग्य प्रकृति १४६ गुणस्थान प्रमत्तादि चार हैं। यहाँ सत्त्वसम्बन्धी कथन तो गुणस्थानवत् है, असत्त्व गुणस्थानोक्त प्रकृतियों में से दो-दो प्रकृति कम जानना। सो सर्वत्र नरक व तिर्यञ्चायु ये दो प्रकृतियाँ कम करनी चाहिए।
परिहारविशुद्धिसंयम में सत्त्व पूर्वोक्त १४६ प्रकृति का, गुणस्थान प्रमत्त और अप्रमत्त ये दो हैं तथा क्षपक सूक्ष्मसाम्परायसंयम में सत्त्वप्रकृति १०२, गुणस्थान एक सूक्ष्मसाम्पराय । यथाख्यातसंयम में सत्त्वयोग्य प्रकृति १४६, गुणस्थान उपशान्तकषायादि चार हैं। उपशान्तकषाय में उपशम सम्यक्त्वसहित उपशम श्रेणी चढ़ते हुए १४६ प्रकृति का सत्त्व है और क्षायिकसम्यक्त्व सहित उपशमश्रेणी चढ़ते हुए देवायुबन्ध सहित १३९ व आयुबन्धरहित १३८ प्रकृति का सत्त्व है। यहाँ दोनों स्थानों पर असत्त्व क्रम से २ व ९ या १० प्रकृतियों की सत्त्वव्युच्छित्ति नहीं है। क्षीणकषाय गुणस्थान में १०१ प्रकृति का सत्त्व,