Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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गोम्मटसार कर्मकाण्ड-३२७
सत्त्व कहते हैं तथा उस विवक्षितपर्याय में उत्पन्न होने के बाद उद्वेलना होकर अथवा उद्वेलना हुए बिना नवीन बन्ध होकर जो सत्त्व होता है उसे स्वस्थानसत्त्व कहते हैं।
तेजकाय-वायुकाय जीवों में सत्त्वयोग्यप्रकृति १४४
आ २ | स १ | ___ १४४ | १४२ | १४१ |
मि १ | १४० ।
सु २ | १३८ ।
ना ४ | १३४ |
उ १ | १३३ ।
म २ १३१
उपर्युक्त सन्दृष्टि में तेजकाय-वायुकाय जीवसम्बन्धी कथन किया गया है। तीन आयु और तीर्थङ्कर प्रकृति का सत्त्व न होने से यहा १४४ प्रकृति का सत्त्व पाया जाता है। प्रथम पंक्ति में शून्य स्थापित किया है उसका अभिप्राय उद्वेलना का अभाव बताना है। द्वितीय पंक्ति में उद्वेलन हुई प्रकृतियों को बताया गया है। तृतीय पंक्ति १४४ सत्त्वयोग्य प्रकृतियों में से उद्वेलना होने पर कितनी प्रकृतियां सत्त्व में रहती हैं यह दर्शाया गया है। द्वितीय और तृतीय पंक्ति का स्पष्टीकरण इस प्रकार है कि आहारकद्विक (आ २) की उद्वेलना होने पर सत्त्व १४२ प्रकृति का, सम्यक्त्व प्रकृति की उद्वेलना होने पर सत्त्व १४१ प्रकृति का, मिश्रप्रकृति की उद्वेलना होने पर सत्त्व १४० प्रकृति का, देवद्विक (सु २) की उद्वेलना होने पर १३८ प्रकृति का सत्त्व, नारकचतुष्क (ना ४) अर्थात् नरकगति, नरकगत्यानुपूर्वी, वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिकअड्रोपाङ्ग की उद्वेलना होने पर सत्त्व १३४ प्रकृति का, उच्चगोत्र की उद्वेलना होने पर सत्त्व १३३ प्रकृति का, मनुष्यद्विक (म २) अर्थात् मनुष्यगति व मनुष्यगत्यानुपूर्वी की उद्वेलना होने पर १३१ प्रकृति का सत्त्व पाया जाता है।
विकलत्रय तथा पृथ्वी-अप्-वनस्पतिकाय में सत्त्वयोग्य १४५ प्रकृति| ए | द्वि । त्रि | च | पृ । अ व १४५ |
आ २ | स १ | मि १ | सु २ | नार ४ | | १४३ | १४२ । १४१ । १३९ | १३५ | १३३ १३१ |
उपर्युक्त सन्दृष्टि में प्रथम पंक्ति में एकेन्द्रिय-द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रिय-पृथ्वीकाय अप्काय तथा वनस्पतिकाय में सत्त्वयोग्य देवायु-नरकायु व तीर्थकरप्रकृतिबिना १४५ प्रकृति है, यह दर्शाया गया है। द्वितीयपंक्ति में जो शून्य रखे गए हैं वे जिसके उद्वेलना नहीं हुई है, वह दिखाने के लिये हैं। तृतीय