Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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अथ सत्त्वप्रकरणम् आगे प्रकृतियों के सत्त्व का निरूपण करते हुए सर्वप्रथम मिथ्यात्वगुणस्थान में सत्त्व का वर्णन करते हैं
तित्थाहारा जुगवं, सव्वं तित्थं ण मिच्छगादितिए।
तस्सत्तिकम्मियाणं, तग्गुणठाणं ण संभवदि ॥३३३॥ अर्थ - मिथ्यात्वगुणस्थान में जिसके तीर्थङ्करप्रकृति का सत्त्व है उसके आहारकद्विक का सत्त्व नहीं होता, तथा जिसके आहारकद्विक का सत्त्व होता है उसके तीर्थङ्करप्रकृति का सत्त्व नहीं है। जिसके आहारकद्विक और तीर्थङ्करप्रकृति का युगपत् सत्त्व पाया जाता है उसके मिथ्यात्वगुणस्थान नहीं होता है। अत: मिथ्यात्वगुणस्थान में एक जीव की अपेक्षा आहारकद्विक और तीर्थङ्करप्रकृति का युगपत् सत्त्व न होकर एक का ही सत्व रहता है तथा नानाजीवों की अपेक्षा दोनों का सत्त्व पाया जाता है। इसप्रकार मिथ्यात्वगुणस्थान में १४८ प्रकृतियों का सत्त्व नानाजीवों की अपेक्षा होता है। सासादनगुणस्थान में एक जीव अथवा नानाजीवों की अपेक्षा क्रम से या युगपत् तीर्थकर और आहारकद्विक का सत्त्व नहीं होने से १४५ प्रकृति सत्त्वयोग्य हैं। मिश्र मुणस्थान में एक तीर्थङ्करप्रकृति का सत्त्व न होने से ५४७ प्रकृति का सत्त्व है, क्योंकि इन प्रकृतियों का जिनके सत्त्व पाया जावे उनके वह गुणस्थान नहीं होता।'
१.शंका - दूसरे गुणस्थान में तीर्थंकरप्रकृति, आहारकशरीर व आहारक अंगोपांग का सत्त्व नहीं है और तीसरे मिश्रगुणस्थान में आहारकशरीर व आहारक अंगोपांग का सत्त्व बतलाया है, सो किस अपेक्षा से बताया है?
समाधान - तीर्थकर प्रकृतिका बन्धसम्यग्दष्टि के होता है और इस प्रकति का बन्ध प्रारम्भ होने के पश्चात वह जीव मिथ्यात्वको प्राप्त नहीं होता अर्थात सम्यग्दष्टि ही बना रहता है। यदि तीर्थकर प्रकृति से पूर्व उस जीव ने दूसरे या तीसरे नरक की
कर लिया है तो ऐसा जीव दासरे या तीसरे नरक में उत्पन्न होने से एक अन्तर्महतपूर्व और उत्पन्न होने के एक अन्तर्मुहूर्त पश्चात् तक मिथ्यादृष्टि होता है । केवल ऐसे जीव के मिथ्यात्व गुणस्थान में तीर्थंकरप्रकृति का सत्त्व पाया जाता है। नरक में उत्पन्न होने वाले जीव के दूसरे या तीसरे गुणस्थान में मरण नहीं है क्योंकि नरक में दूसरा या तीसर। गुणस्थान अपर्याप्त
नहीं पाया जाता अत: तीर्धकरप्रक्राति के सत्त्व वाला जीव दसरे या तीसरे स्थान को प्राम नहीं होता है। यही कारण है कि दूसरे व तीसरे गुणस्थान में तीर्थकरप्रकृति के सत्त्व का निषेध किया है।
प्रथमोपशम सम्यक्त्व से गिरकर ही दूसरे गुणस्थान को जाता है। प्रथमोपशम सम्यग्दृष्टि के आहारकद्विक्र का बंध नहीं होता है। जिस जीव के आहारकद्विक का सत्त्व है वह जीव प्रथमोपशम सम्यक्त्व को प्राप्त नहीं होता क्योंकि आहारकद्विक की उद्वेलना के बिना सम्यक्त्व व मिन प्रकृति की स्थिति प्रथमोपशम सम्यक्त्व प्राप्त करने के योग्य नहीं होती। तेरह उद्वेलन प्रकृतियों में सर्वप्रधम आहारकद्विक को उद्वेलना होती है। अत: दूसरे गुणस्थान में आहारकनिक का सत्त्व नहीं होता । अथवा
आहारकद्विक के सत्ववाला जीव सम्यक्त्व से गिरकर दूसरे गुणस्थान को प्राप्त नहीं होता, ऐसा स्वभाव है और स्वभाव तर्क का विषय नहीं है। आहारकद्धिक की उद्वेलना के बिना भी आहारकद्विक के सत्त्ववाला मिथ्यादृष्टि जीव मिश्रगुणस्थान को जा सकता है अत: तीसरे गुणस्थान में आहारकद्रिक का सत्र कहा है। (पं. रतनचन्द्र मुख्तार व्य. कृति, ११६)