Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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गोम्मटसार कर्मकाण्ड-३०९
श्रेणी के द्वारा संज्वलनमान के एक समय कम दो आवलीमात्र नवकसमयप्रबद्ध को छोड़कर प्राचीनसत्ता में स्थित कर्मों के साथ अप्रत्याख्यान और प्रत्याख्यानमान का एक अन्तर्मुहूर्त में उपशम करता है। इसके पश्चात् एक समय कम दो आवली मात्र काल में सज्वलनमान के नवकसमयप्रबद्ध का उपशम करता है। तदनन्तर प्रतिसमय असंख्याराप्ति श्रेणी साप से उसका !! ॐ, I सञ्चलन के नवकसमयप्रबद्ध को छोड़कर सत्ता में स्थित प्राचीनकर्मों के साथ अप्रत्याख्यान-प्रत्याख्यानमाया का अन्तर्मुहूर्त में उपशम करता है। तत्पश्चात् एक समय कम दोआवलीमात्रकाल में मायासज्वलन के नवकसमयप्रबद्ध का उपशम करता है। तत्पश्चात् प्रत्येक समय में असंख्यातगुणी श्रेणीरूप से कर्मप्रदेशों का उपशम करता हुआ लोभ वेदक के दूसरे विभाग में सूक्ष्मकृष्टि करता हुआ सज्वलनलोभ के नवकसमय प्रबद्ध को छोड़कर सत्ता में स्थित प्राचीन कर्मों के साथ प्रत्याख्यान और अप्रत्याख्यान लोभ का एक अन्तर्मुहूर्त में उपशम करता है। इस प्रकार सूक्ष्मकृष्टिगत लोभ को छोड़कर और एक समन्त्र कम दोआवलीमात्र नवकसमयबद्ध तथा उच्छिष्टावलीमात्र निषेकों को छोड़कर शेष स्पर्द्धकगत सम्पूर्ण बादरलोभ अनिवृत्तिकरण के चरमसमय में उपशान्त हो जाता है। इस प्रकार नघुसकवेद से लेकर जबतक बादरसञ्चलनलोभ रहता है तब तक अनिवृत्निकरण गुणस्थानवाला जीव इन पूर्वोक्त प्रकृतियों का उपशम करने वाला होता है। इसके अनन्तरसमय में जो सूक्ष्मकृष्टिगत लोभ का अनुभव करता है और जिसने अनिवृत्ति इस सज्ञा को नष्ट कर दिया है ऐसा जीव सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थानवर्ती होता है। तदनन्तर वह अपने काल के चरमप्तमय में सूक्ष्मकृष्टिगत सम्पूर्णलोभ-सज्वलन का उपशम करके उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थ होता है। इस प्रकार मोहनीय की उपशमनविधि का वर्णन संक्षेप से हुआ।
भावार्थ - लब्धिसारादि अन्य ग्रन्थों में द्वितीयोपशमसम्यक्त्व की उत्पत्ति अप्रमत्तसंयतगुणस्थान में ही बतलाई है, किन्तु यहाँ उपशमनविधि के कथन में उसकी उत्पत्ति असंयतसम्यग्दृष्टि से लेकर अप्रमत्तसंयतगुणस्थान तक किसी भी एक गुणस्थान में बतलाई गई है तथा अनन्तानुबन्धी का अन्य प्रकृति रूप से संक्रमण होने को ग्रन्थान्तरों में विसयोजना कहा है, किन्तु यहाँ उसे उपशम कहा है। यद्यपि यह केवल शब्दभेद है और स्वयं वीरसेनस्वामी को द्वितीयोपशमसम्यक्त्व में अनन्तानुबन्धी का अभाव इष्ट है तथापि उसे 'विसंयोजना' शब्द से न कहकर उपशमशब्द के द्वारा कहने से उनका अभिप्राय यह रहा हो कि द्वितीयोपशमसम्यग्दृष्टि जीव कदाचित मिथ्यात्वगुणस्थान को प्राप्त होकर पुनः अनन्तानुबन्धी का बन्ध करने लगता है और जिन कर्मप्रदेशों का उसने अन्य प्रकृतिरूप से संक्रमण किया था, उनका पुन: अनन्तानुबन्धीरूप से संक्रमण हो सकता है। इसप्रकार यद्यपि द्वितीयोपशमसम्यक्त्व में अनन्तानुबन्धी की सत्ता नहीं रहती है, तथापि उसका पुनः सद्भाव होना सम्भव है। अतः द्वितीयोपशमसम्यक्त्व में अनन्तानुबन्धी का विसंयोजन न कहकर 'उपशम शब्द का प्रयोग किया गया है, ऐसा प्रतीत होता है।