Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
View full book text
________________
गोम्मटसार कर्मकाण्ड-३११
यह निर्णय नहीं हो सकता कि कौनसी उपदेश घाटेत हो सकती हैं। तत्पश्चात् कषाय और १६ प्रकृतियों के नाश होने पर एकअन्तर्मुहूर्त जाकर धार सज्वलन और नौ नोकषायों का अन्तरकरण करता है। अन्तरकरण करने के पहले चार सज्वलन और नौ नोकषायों सम्बन्धी तीन वेदों में से जिन दो प्रकृतियों का उदय रहता है उनकी प्रथमस्थिति अन्तर्मुहूर्तमात्र स्थापित करता है और अनुदयरूप ११ प्रकृतियों की प्रथमस्थिति एकसमय कम आवलीमात्र स्थापित करता है। तत्पश्चात् अन्तरकरण करके एक अन्तर्मुहूर्त व्यतीत होने पर नपुंसकवेद का क्षय करता है। तदनन्तर एक अन्तर्मुहूर्त व्यतीत हो जाने पर स्त्रीवेद का क्षय करता है। पुन: एक अन्तर्मुहूर्त जाकर सवेदभाग के द्विचरम समय में पुरुष वेद के पुरातन सत्तारूप कर्मों के साथ ६ नोकषाय का युगपत् क्षय करता है। तदनन्तर एक समय कम दो आवलीमात्र काल के व्यतीत होने पर पुरुषवेद का क्षय करता है। तत्पश्चात् एकअन्तर्मुहूर्त ऊपर जाकर क्रोधसज्वलन का क्षय करता है। पश्चात् एक अन्तर्मुहूर्त व्यतीत होने पर मानसज्वलन का क्षय करता है। इसके पश्चात् एक अन्तर्मुहूर्त ऊपर जाकर मायासज्वलन का क्षय करता है। पुन: एकअन्तर्मुहूर्त ऊपर जाकर सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थान को प्राप्त होता है। वह सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थानवी जीव भी अपने गुणस्थान के अन्तिमसमय में लोभसञ्चलन का क्षय करता है और उसी काल में क्षीणकषायगुणस्थान को प्राप्त करके तथा अन्तर्मुहूर्त बिताकर अपने काल के द्विचरम समय में निद्रा और प्रचला का युगपत् क्षय करता है। तदनन्तर अपने काल के अन्तिम (चरम) समय में ५ ज्ञानावरण, ४ दर्शनावरण और ५ अन्तराय इन १४ प्रकृतियों का क्षय करता है। इस प्रकार इन ६० प्रकृतियों का क्षय हो जाने पर यह जीव सयोगकेवलीजिन होता है। सयोगीजिन किसी भी कर्म का क्षय नहीं करते । तत्पश्चात् बिहार करके
और क्रम से योगनिरोध करके वे अयोगकेवली होते हैं। अयोगकेवली भी अपने काल के द्विचरमसमय में वेदनीयकी दोनों प्रकृतियों में से अनुदयरूप कोई एक वेदनीय, देवगति, पाँच शरीर, पाँच शरीरसंघात, पाँच शरीरबन्धन, छह संस्थान, तीन अङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, पाँच वर्ण, दो गन्ध, पाँच रस, आठ स्पर्श, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु,उपघात, परधात, उच्छ्वास, प्रशस्त-विहायोगति, अप्रशस्तविहायोगति, अपर्यास, प्रत्येक, स्थिर-अस्थिर, शुभ-अशुभ, दुर्भग, सुस्वर-दुःस्वर, अनादेय, अयशस्कीर्ति, निर्माण और नीचगोत्र इन ७२ प्रकृतियों का क्षय करते हैं। पश्चात् अपने काल के अन्तिम समय में उदयागत कोई एकवेदनीय, मनुष्यायु, मनुष्यगति, पञ्चेन्द्रियजाति, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, त्रस-बादर-पर्याप्त-सुभग-आदेय-यशस्कीर्ति, तीर्धर और उच्चगोत्र इन १३ प्रकृतियों का क्षय करते हैं। अथवा मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी सहित अयोगकेवली अपने द्विचरमसमय में ७३ प्रकृतियों का और चरम समय में १२ प्रकृतियों का क्षय करते हैं। इस प्रकार संप्सार की उत्पत्ति के कारणों का विच्छेद हो जाने से इसके अनन्तरवर्तीसमय में कर्मरज से रहित निर्मल दशा को प्राप्त सिद्ध हो जाते हैं। इनमें से जो जीव कर्म-क्षपणव्यापार करते हैं उन्हें क्षपक कहते हैं और जो जीव कर्मों के उपशमन करने में व्यापार करते हैं उन्हें उपशमक कहते हैं।