Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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गोम्मटसार कर्मकाण्ड-३१० अब क्षपणविधि कहते हैं
अनन्तानुबन्धीक्रोध-मान-माया-लोभ तथा मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृति, इन सात प्रकृतियों का असंयतसम्यादृष्टि, सवतासयत, प्रमत्तसंयत अथवा अप्रमत्तसंयत जीव नाश करता
है।
शङ्का - इन सात प्रकृतियों का युगपत् नाश करता है या क्रम से?
समाधान - नहीं, क्योंकि तीन करण करके अनिवृत्तिकरण के चरमसमय में पहले अनन्तानुबन्धी चार कषाय का युगपत् क्षय करता हैं। तत्पश्चात् पुनः तीन करण करके उनमें से अध:करण और अपूर्वकरण को उल्लंघकर अनिवृत्तिकरण के संख्यातभाग व्यतीत हो जाने पर मिथ्यात्व का क्षय करता है। इसके अनन्तर अन्तर्मुहूर्त व्यतीत कर सम्यग्मिथ्यात्व का क्षय करता है। तत्पश्चात् अन्तर्मुहूर्त व्यतीतकर सम्यक्प्रकृति का क्षय करता है।
___ इस प्रकार क्षायिकसम्यग्दृष्टिजीव सातिशय अप्रमत्तगुणस्थान को प्राप्त होकर जिस समय क्षपणविधि प्रारम्भ करता है उस समय अधः प्रवृत्तकरण करके क्रम से अन्तर्मुहूर्त में अपूर्वकरणगुणस्थानवाला होता है। वह एक भी कर्म का क्षय नहीं करता है, किन्तु प्रत्येकसमय में असंख्यातगुणितरूप से कर्मप्रदेशों की निर्जरा करता है। एक-एक अन्तर्मुहूर्त में एक-एक स्थितिकाण्डकयात करता हुआ अपने काल के भीतर संख्यात हजार स्थितिकाण्डकों का घात करता है। और उतने ही स्थितिबन्धापसरण करता है तथा उनसे संख्यातहजारगुणे अनुभागकाण्डकों का घात करता है, क्योंकि एक अनुभागकाण्डक के उत्कीरण-काल से एक स्थितिकाण्डक का उत्कीरणकाल संख्यातगुणा है, ऐसा सूत्रवचन है। इस प्रकार अपूर्वकरणगुणस्थानसम्बन्धी क्रिया करके और अनिवृत्तिकरणगुणस्थान में प्रविष्ट होकर, वहाँ पर भी अनिवृत्तिकरणकाल के संख्यात भागों को अपूर्वकरण के समान स्थितिकाण्डकघात
आदि विधि से व्यतीत कर अनिवृत्तिकरण के काल में संख्यातभाग शेष रहने पर स्त्यानगृद्धि, निद्रानिद्रा, प्रचला-प्रचला, नरकगति, तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रियजाति, द्वीन्द्रिय,त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रियजाति, नरकगति प्रायोग्यानुपूर्वी, तिर्यञ्चगतिप्रायोग्यानुपूर्वी आतप,उद्योत,स्थावर,सूक्ष्म और साधारण इन सोलहप्रकृतियों का क्षय करता है, पश्चात् अन्तर्मुहूर्त व्यतीत कर प्रत्याख्यानावरण और अप्रत्याख्यानावरणसम्बन्धी क्रोध-मान-माया और लोभ इन आठ प्रकृतियों का एक साथ क्षय करता है, यह सत्कर्मप्राभृत का उपदेश है, किन्तु कषायप्राभूत का उपदेश तो इस प्रकार है कि पहले आठ कषायों का क्षय हो जाने के पश्चात् एकअन्तर्मुहूर्त में पूर्वोक्त १६ कर्मप्रकृतियाँ क्षय को प्राप्त होती हैं। ये दोनों ही उपदेश हमारे लिए तो सत्य हैं, क्योंकि वर्तमान में केवली-श्रुतकेवली का अभाव होने से
१.ध.पु. १५.२१५ से |