Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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गोम्मटसार कर्मकाण्ड-२९५
इन तीनों की उदयव्युच्छित्ति असंयतगुणस्थान में हो जाती है। सेसाणं सगुणोघं गाथा २३० के इन वचनों के अनुसार शेष तीन (सम्यग्मिथ्यात्व, सासादन और मिथ्यात्व) में अपने-अपने गुणस्थान के समान उदयादिकी रचना जानना।
विशेषार्थ- भव्यमार्गणा में गुणस्थानवत् उदययोग्यप्रकृति १२२ हैं, गुणस्थान मिथ्यात्व से अयोगीपर्यन्त १४ हैं तथा उदयव्युच्छित्ति-उदय व अनुदयसम्बन्धी सर्वकथन गुणस्थान के समान ही जानना। अभव्यमार्गणा में उदययोग्य प्रकृति ११७ और गुणस्थान एक मिथ्यात्व ही होता है।
सम्यक्त्वमार्गणा में सम्यक्त्वी के उदययोग्यप्रकृति १०४ हैं, किन्तु यहाँ "णादितियाणूयहारदुर्ग" इस वचन से उपशमसम्यक्त्व में नरक-तिर्यञ्च और मनुष्यगत्यानुपूर्वी तथा सम्यक्त्वबिना १०० प्रकृति उदययोग्य है, क्योंकि प्रथमोपशमसम्यक्त्व में नरक तिर्यञ्च व मनुष्यगत्यानुपूर्वी का उदय नहीं होता कारण कि जिसने पहले देवायु का बन्ध कर लिया है उसके उपशमश्रेणी से उतरते समय यदि अपूर्वगुणस्थानपर्यन्त मरण हो तो वह मरकर असंयतगुणस्थानवर्ती देव ही होता है तथा द्वितीयोपशमसम्यक्त्व में तो देवायु के बिना अन्य तीन आयु का सत्त्व ही नहीं है, क्योंकि द्वितीयोपशमसम्यक्त्व श्रेणी के सम्मुख सातिशयअप्रमत्तगुणस्थानवी जीव के ही स्वीकार किया गया है तथा अणुव्रत व महाव्रत देवायुबिना अन्य आयु को बाँधने वाले जीवों के नहीं होते हैं। इसलिए द्वितीयोपशमसम्यक्त्व में देवगत्यानुपूर्वी बिना तीनों आनुपूर्वी का उदय नहीं है। उपशमसम्यक्त्व में गुणस्थान असंयतादि आठ होते हैं। असंयतगुणस्थान में अप्रत्याख्यानावरण कषाय चार, देव-नरकआयु, नरक-देवगति, देवगत्यानुपूर्वी, वैक्रियकशरीर, वैक्रियकअङ्गोपाङ्ग, दुर्भग, अनादेय और अयशस्कीर्ति इन १४ प्रकृतियों की व्युच्छित्ति, उदयप्रकृति १००, अनुदय नहीं है नरकगति और नरकायु का उदय प्रथमोपशमसम्यक्त्व की अपेक्षा ही जानना। देशसंयतगुणस्थान में प्रत्याख्यानावरणकषाय ४, तिर्यञ्चायु,
१. शंका - गोम्मटसार कर्मकाण्ड गाथा ३२९ में लिखा है कि देवायु का बंध बगैर अणुव्रत महाव्रत नहीं पले । सो कैसे?
समाधान - नारकी जीवों के तो नित्य अशुभ लेश्या रहती है, इसलिए वे अणुव्रत या महाव्रत धारण नहीं कर सकते । देवों और भोगभूमिया मनुष्यों का आहार नियत है, इसलिये वे भी अणुव्रत या महाव्रत नहीं पालन कर सकते । यद्यपि वे क्षायिक सम्यग्दृष्टि और अत्यधिक शक्ति वाले होते हैं तथापि वे संयम यासंघमासंयम नहीं धारण कर सकते, क्योंकि उनके आहार करने की पर्याय नियत होने से वे आहार संबंधी संवम नहीं कर सकते।
अत; मात्र कर्मभूमिया मनुष्य संयम धारण कर सकते हैं। किन्तु जिन मनुष्यों ने नारक, तिर्यञ्च तथा मनुष्य आयु का बंध कर लिया है वे संयम या संयमासंयम धारण नहीं कर सकते, क्योंकि नरकायु आदिका बंध हो जाने पर उनके अणुव्रत या महाव्रत को ग्रहण करने की बुद्धि उत्पन्न नहीं होती है। कहा भी है -
"देवगतिव्यतिरिक्तगतित्रयसम्बद्धायषोपलक्षितानामणवतोपादानबद्ध्यनुत्पत्नः।" धवलपु.१५.३२६।
अर्थ- देवगति को छोड़कर शेष तीन गति सम्बन्धी आयुबन्ध से युक्त जीवों के अणुव्रत ग्रहण करने की बुद्धि ही उत्पन्न नहीं होती है।