Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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गोम्मटसार कर्मकाण्ड-२३०
सयोगकेवली, २९
। ४२ । ८०
| ८० (६५+१६-१ तीर्थंकर) | २९ (वर्षभनाराचसंहनन, निर्माण, स्थिर
अस्थिर, शुभ-अशुभ, सुस्वर-दुःस्वर, प्रशस्त-अप्रशस्तविहायोगति, औदारिकशरीर, औदारिक अंगोपांग, तैजस-कार्मण, संस्थान ६, वर्णादि ४, अगुरुलघु, उपघात,
परघात, उच्छ्वास और प्रत्येक शरीर) । १३ (साता-असातावेदनीय, मनुष्यगति, मनुष्यायु,
पञ्चेन्द्रिय, सुभग, त्रस, बादर, पर्याप्त, आदेय, यशस्कीर्ति, तीर्थंकर और उच्चगोत्र)
अयोग
। १३
। १३ । १०९
आगे यतिवृषभाचार्यकृत चूर्णिसूत्र का उपदेश रूप द्वितीयपक्ष कहते हैं
पण णवइगि सत्तरसं अड पंच च चउर छक्क छच्चेव। इगिदुग सोलस तीसं बारस उदये अजोगंता॥२६४॥
यवा
अर्थ - अपने अनुभागरूप स्वभाव की अभिव्यक्ति को उदय कहते हैं। अपना कार्य करके । कर्मरूपता को छोड़ने का नाम उदय है। उदय के अन्त को उदयव्युच्छित्ति कहते हैं। मिथ्यात्वगुणस्थान । से अयोगकेवलीगुणस्थान पर्यन्त व्युच्छिन्नप्रकृत्तियाँ क्रम से ५-९-१-१७-८-५-४-६-१-१६-३० और १२ हैं।
विशेषार्थ - यद्यपि गाथोक्त इस मत का स्पष्ट रूप से कथन नहीं है, किन्तु निष्कर्ष से ऐसा । ज्ञात होता है।
जयधवल पु.२ पृष्ठ १२२ पर सञ्जीजीवों की कालप्ररूपणा पुरुषवेद के समान कही है तथा पृष्ठ ११५ पर पुरुषवेदी के अनन्तानुबन्धीविभक्तिकाल एकसमय कहा है। मोहनीयकी २४ प्रकृतियों की सत्तावाला उपशमसम्यग्दृष्टिजीव अनन्तानुबन्धी की संयोजनाकर पश्चात् एक समय के लिए अनन्तानुबन्धीसहित सञी रहा तथा अगले समय में मरण कर असञ्जीजीवों में उत्पन्न हो गया। इसप्रकार सासादन गुणस्थान में मरणकर असञ्जीजीवों में उत्पन्न होता है। यदि कहा जाय कि अगले समय में मिथ्यादृष्टि होकर मरणकर असञ्जी हो गया सो सम्भव नहीं है, क्योंकि मिथ्यात्वका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त है। मिथ्यादृष्टि होने के प्रथम समय में मरण नहीं होता है।