Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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गोम्मटसार कर्मकाण्ड - २३९
अर्थ - किसी भी विवक्षित भव के प्रथमसमय में ही उस विवक्षित भव के योग्य गति, आनुपूर्वी और आयुका उदय होता है। तथा 'सपदे' कहने से एकजीव के एक ही गति, आनुपूर्वी तथा आयुका उदय युगपत् होता है। आतपनामकर्म का उदय बादर पर्याप्तपृथ्वीकायिकजीव के ही होता है। उच्चगोत्र का उदय मनुष्य और देवों के ही सम्भव है और स्त्यानगृद्धि आदि तीन निद्राओं का उदय मनुष्य और तिर्यञ्च के ही सम्भव है, अन्य के नहीं ।
संखाउगणरतिरिए, इंदियपज्जत्तगादु श्रीणतियं । जोग्गमुदेदुं वज्जिय, आहारविगुव्विणुट्ठवगे ॥ २८६ ॥
अर्थ संख्यातवर्ष की आयु वाले कर्मभूमिया मनुष्य और तिर्यञ्चों के ही इन्द्रियपर्याप्ति के पूर्ण होने के पश्चात् स्त्यानगृद्धि आदि तीननिद्राप्रकृति उदययोग्य हैं, किन्तु आहारकऋद्धि और वैक्रियिकऋद्धि के धारक मनुष्यों को छोड़कर सर्वकर्मभूमिज मनुष्यों में इसके उदय की योग्यता है ।
अयदापुणे ण हि थी, संढोवि य घम्मणारयं मुच्चा । श्रीसंदयदे कमसो, णाणुचऊ चरिमतिण्णाणू || २८७ ॥
अर्थ - निवृत्तिअपर्याप्त के असंयतगुणस्थान में स्त्रीवेद नपुंसकवेद का उदय नहीं है, क्योंकि सम्यग्दृष्टि मरणकर स्त्री में उत्पन्न नहीं होता, किन्तु घर्मानामक प्रथमनरक नपुंसकवेद के लिए अपवादरूप हैं, क्योंकि जिसने पूर्व में नरकायु का बन्ध कर लिया है, ऐसा मनुष्य क्षायिक या कृतकृत्यवेदकसम्यक्त्वसहित मरण कर धर्मानरक में ही उत्पन्न होता है अतः असंयतगुणस्थान में स्त्रीवेदी के तो चारों आनुपूर्वी का उदय नहीं है, किन्तु नपुंसकवेदी के नरकगत्यानुपूर्वी का उदय तो है । शेष तीन का उदय नहीं है।
इगिविगलथावरचऊ, तिरिए अपुण्णो णरेवि संघडणं । ओराल दु णरतिरिए, वेगुव्वदु देवणेरयिए ॥ २८८॥
अर्थ - एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रियजातिनामकर्म स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण, ये तिर्यञ्यों के ही उदययोग्य हैं, किन्तु अपर्याप्तप्रकृति मनुष्यों के भी उदययोग्य है। वज्रर्षभनाराचादि छहसंहनन और औदारिकशरीरनामकर्म का युगल, मनुष्य व तिर्यञ्च के उदययोग्य है। वैक्रियिकशरीर वैक्रियिकअङ्गोपाङ्ग देव और नारकियों के ही उदययोग्य है।
१. धवल पु. १५५. १५२ पर देशसंयमी तिर्यञ्यों के भी उच्च गोत्र का उदय कहा है।