Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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गोम्मटसार कर्मकाण्ड-२०९
अब इन योगस्थानों के आदि और अन्तस्थान को बताते हैं - ... ... .......:.:. गुहमायोट आपज्जनगम्स पढमे जहण्णओ जोगो।
पजत्तसण्णिपंचिंदियस्स उक्कस्सओ होदि ॥२५६|| अर्थ - इन सर्वयोगस्थानों में सूक्ष्मनिगोदिया लब्ध्यपर्याप्तकके तीनों मोड़ाओं से उत्पन्न होने वाले अन्तिम (६०१२ वें) क्षुद्रभव के प्रथमसमय में जघन्यउपपादयोगस्थान होता है वह तो आदिस्थान जानना तथा संज्ञीपञ्चेन्द्रियपर्याप्तकजीवका जो उत्कृष्टपरिणामयोगस्थान है, वह अन्तिमस्थान है। अथानन्तर प्रकृति आदि चार प्रकार के बन्धों के कारण कहते हैं -
जोगा पयडिपदेसा, ठिदिअणुभागा कसायदो होति।
अपरिणदुच्छिण्णेसु य, बंधट्ठिदिकारणं णत्थि ॥२५७॥ अर्थ : प्रकृति और प्रदेशबन्ध योगों के निमित्त से होते हैं जैसा शुभ व अशुभ योग होगा वैसा ही प्रकृतिबन्ध तथा जैसा तीव्र-मन्दयोग होगा वैसा ही समयप्रबद्ध बँधता है इसलिए इनका कारण योग है तथा स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध कषाय के निमित्त से होता है अत:जैसी कषाय होगी वैसा ही यथायोग्य स्थितिबन्ध होगा तथा वैसा ही यथायोग्य अनुभागबन्ध भी होगा, क्योंकि इनका मुख्य निमित्त कषाय है। जघन्य एक समय और उत्कृष्ट से अन्तर्मुहूर्तकाल प्रमाण जिनके कषायस्थान उदयरूप नहीं होते ऐसे उपशान्तकषाय एवं जिसके कषायस्थानक्षीण हो गए हैं ऐसे क्षीणकाय और सयोगकेवली के तत्काल स्थितिबन्ध का कारण कषाय नहीं है। 'च' शब्द से अयोगकेवली के बन्ध के कारण योग और कषाय दोनों ही नहीं हैं।
विशेषार्थ : इस सम्बन्ध में धवलाकार वीरसेनाचार्य का मत है कि ११-१२-१३ वें गुणस्थान में सातावेदनीय का १ समय प्रमाण स्थिति व अनुभागबन्ध होता है।।
__ अब योगस्थान, प्रकृतिसंग्रह, स्थितिभेद, स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान, अनुभागबन्धाध्यवसायस्थान और कर्मप्रदेशों का अल्पबहुत्व तीनगाथाओं से कहते हैं -
सेढि असंखेजदिमा, जोगट्ठाणाणि होति सव्वाणि ।
तेहिं असंखेजगुणो, पयडीणं संगहो सव्वो ॥२५८।। अर्थ : निरन्तर या सान्तर अथवा सान्तर-निरन्तर ये सर्वयोगस्थान जपच्छ्रेणी के असंख्यातवेंभाग
१. “तेणेव कारणेण डिदि-अणुभागेहि इरियावह कम्ममप्पपिदि भणिदं।" (धवल पु, १३ १. ४९)