Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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गोम्मटसार कर्मकाण्ड-२०८ अब जघन्ययोगस्थान में वृद्धि का क्रम कहते हैं -
धुववड्डीवटुंतो, दुगुणं दुगुणं कमेण जायते।
चरिमे पल्लच्छेदाऽसंखेजदिमो गुणो होदि ।।२५३॥ अर्थ : इस प्रकार स्थान-स्थान प्रति ध्रुववृद्धिरूप से बढ़ता हुआ जघन्ययोगस्थान (श्रेणी के असंख्यातवेंभाग जाकर) क्रम से दूना-दूना हो जाता है और अन्त में सज्ञीपर्याप्तकजीव के उत्कृष्टपरिणामयोगस्थान में गुणाकार का प्रमाण पल्य के अर्धच्छेद के असंख्यातवें भाग प्रमाण है अर्थात् जघन्ययोगस्थान के अविभागप्रतिच्छेदों के प्रमाण को पल्य के अर्धच्छेदों के असंख्यातवें भाग से गुणा करने पर जो प्रमाण हो उतने सर्वात्कृष्टयोगस्थान के अविभागप्रतिच्छेद होते हैं। अब योगस्थानों का प्रमाण कहते हैं -
आदी अंते सुद्धे, बहिहिदे रूवसंजुदे ठाणा ।
सेढिअसंखेजदिमा, जोगट्ठाणा णिरंतरगा ॥२५४॥ अर्थ : अन्तिम उत्कृष्टस्थान के जितने अविभागप्रतिच्छेद हैं उनमें से जघन्यस्थान के | अविभागप्रतिच्छेदों को घटाने पर जो प्रमाण आवे उसमें वृद्धि का भाग देवें सो एक-एक स्थान में सूच्यङ्गुलके असंख्यातवेंभागप्रमाण जघन्यस्पर्धकके जितने अविभागप्रतिच्छेद हों, उतने बढ़ते हैं। अतः इनका भाग देने पर जो प्रमाण आवे उतने स्थान जानने । इनमें एकजघन्ययोगस्थान मिलाने पर जो प्रमाण हो उतने सर्वनिरन्तरयोगस्थान जानने, ये योगस्थान जगच्छ्रेणी के असंख्यातवेंभाग प्रमाण हैं। आगे सर्वयोगस्थानों का प्रमाण कहते हैं -
अंतरगा तदसंखेजदिमा सेढीअसंखभागा हु।
सांतरणिरंतराणिवि, सव्वाणिवि जोगठाणाणि ।।२५५॥ अर्थ : अन्तर्गत (६अन्तरों में होने वाले) योगस्थान उन निरन्तर योगस्थानों के असंख्यातवें भाग प्रमाण होते हैं, ये भी जगच्छ्रेणी के असंख्यातवें भाग ही हैं तथा जो निरन्तर, सान्तर और मिश्ररूपयोगस्थान हैं वे अन्तर्गतयोगस्थान के अंसख्यातवें भाग प्रमाण हैं, ये भी जगच्छ्रेणी के असंख्यातवें भाग हैं। इस प्रकार तीनों योगस्थानों को मिलाने पर जो सर्वयोगस्थान हैं वे भी जगच्छ्रेणी के असंख्यातवें भाग प्रमाण ही हैं, क्योंकि असंख्यातके बहुतभेद हैं सो यथायोग्य असंख्यात का भाग जानना।
१. धवल पु.१० पृ. ४८८ सूत्र १९३1