Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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गोम्मटसार कर्मकाण्ड-२०६
का प्रमाण जानना। अधस्तनगुणहानि की रचना में ऋण को मिलाने पर जो प्रमाण प्राप्त होता है वह उपरितनगुणहानि रचना के समान है। इस प्रकार जिस-जिस निषेक में जितना-जितना प्रमाण हो उसउस योगस्थान में उतना-उतना जीवों का प्रमाण जानना। "मुहभूमि जोगदले पदगुणिदे पदधणं होदि" इस सूत्र के अनुसार मुख अन्तिमनिषेक और भूमि आदिनिषेकको मिलाकर आधा करके पश्चात् गुणहानि आयाम के प्रमाण से गुणा करने से जो प्रमाण आवे वह उस गुणहानि के सर्वद्रव्य का प्रमाण जानना,ऐसा प्रत्येक गुणहानिका सर्वद्रव्य प्राप्त करने के लिए जानना। प्रथमगुणहानि के सर्वद्रव्य से द्वितीयगुणहानिका द्रव्य आधा है, ऐसे गुणहानि-गुणहानिप्रति द्रव्य आधा-आधा जानना । सर्वगुणहानियों के द्रव्य को प्राप्त करने के लिए "अंतधणं गुणगुणियं" इत्यादि सूत्र से प्रथमगुणहानि के अन्तधनरूप द्रव्य को गुणाकर दो से गुणाकर के उसमें से अन्तिमगुणहानि के आदिधनरूप द्रव्य को कम करना तथा एककम गुणाकार २-१-१ का भाग देने पर उपरितन व अधस्तनरूप सर्वगुणहानि का प्रमाण होता है।
अधस्तनगुणहानियों में, अपने-अपने विशेष (चय) को गुणहानिआयाम से गणा करने से उसउस गुणहानिसम्बन्धी ऋण का प्रमाण प्राप्त होता है। सर्वगुणहानियों का ऋण रूप द्रव्य प्राप्त करने के लिए "अंतधणं गुणगुणियं" इत्यादि सूत्र से प्रथमगुणहानि के ऋणरूप द्रव्य को गुणाकार दो से गुणाकर- के उसमें से अंतिमगुणहानिके ऋणरूप द्रव्य को घटाने से तथा एककम गुणकार २-१-१ का भाग देने पर जो लब्ध आवे उसको उपरितन गुणहानि के द्रव्य में से घटाने पर अथवा अधस्तनगुणहानि के द्रव्य में मिलाने पर अधस्तन तथा उपरितनगुणहानि में द्रव्य समान होता है।
उपरितन और अधस्तनसर्वगुणहानिसम्बन्धी सर्वद्रव्य को जोड़ने पर पर्याप्त सजीवों का प्रमाण प्राप्त होता है। इस प्रकार पर्याप्तत्रससम्बन्धी परिणामयोगस्थानों में पर्याप्तत्रसजीवों का प्रमाण जानना। इस कथनसम्बन्धी अङ्कसन्दृष्टि पूर्व में कह चुके हैं सो तदनुसार ठीक प्रकार समझना। उपरितनगुणहानि के प्रथमनिषेकरूप जो योगस्थान हैं उनके धारकजीव बहुत हैं उसके नीचे और ऊपर जो योगस्थान हैं उनके धारक पूर्वोक्त क्रमसे थोड़े हैं, इसीलिए यवाकार रचना कही है।
आगे उन परिणामयोगस्थान के धारकजीव कितना-कितना प्रदेशबन्ध करते हैं? इस प्रश्न के उत्तरस्वरूप आचार्य समयप्रबद्ध की वृद्धि का प्रमाण त्रैराशिक विधि से कहते हैं
इगिठाणफड्ढयाओ, समयपबद्धं च जोगवड्ढी य ।
समयपबद्धचयटुं, एदे हु पमाणफलइच्छा ।।२५०॥ अर्थ : द्वीन्द्रियपर्याप्तकके प्रथमजघन्यपरिणामयोगस्थान का स्पर्धक, समयप्रबद्ध और योगों की वृद्धि, ये तीनों समयप्रबद्धके बढ़ने का प्रमाण प्राप्त करने के लिए क्रम से त्रैराशिकसम्बन्धी प्रमाणराशि,फलराशि और इच्छाराशि हैं।