Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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गोम्मटसार कर्मकाण्ड-२१४
पुन: दूसरे सूक्ष्मनिगोदलब्ध्यपर्याप्त जीवक्के जघन्यअवगाहना के साथ विग्रहगति से मनुष्यों में उत्पन्न होने पर दूसरा मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी का विकल्प होता है। पुन: तीसरे सूक्ष्मनिगोदलब्ध्यपर्याप्तक जीव के जघन्यअवगाहनासहित अलब्धपूर्वमुखाकार के द्वारा मनुष्यों में उत्पन्न होने पर मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी का तीसरा विकल्प होता है, क्योंकि अन्यथा अपूर्वमुखाकार की उत्पत्ति होने में विरोध आता है। यदि कहो कि कार्यभेद से कारण में भेद मानना असिद्ध है तो यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि इस प्रकार कारण के बिना ही कार्य की उत्पत्ति का प्रसङ्ग प्राप्त होता है। सबसे जघन्य इस अवगाहना का आलम्चन लेकर अलब्धपर्व नानाविधमुखाकारों के साथ मनुष्यों में मारणान्तिक समुद्घात को करने वाले सूक्ष्मनिगोदलब्ध्यपर्यासक जीवों के ४५ लाखयोजन बाहल्यरूप तिर्यकप्रतरों के जितने आकाशप्रदेश होते हैं उतने विकल्प प्राप्त होने तक मनुष्यगति प्रायोग्यानुपूर्वी प्रकृति के विकल्प उत्पन्न कराने चाहिए। यहाँ जघन्यअवगाहनाका आलम्बन लेकर मनुष्यगति प्रायोग्यानुपूर्वी के इतने ही विकल्प उपलब्ध होते हैं।
_ इस अवगाहना से प्राप्त आनुपूर्वीप्रकृतियों को स्थापित करके सूक्ष्मनिगोदलब्ध्यपर्याप्तक की जघन्यअवगाहना को महामत्स्यकी उत्कृष्टअवगाहना में से घटाकर जो शेष रहे उसमें एक अङ्क मिलाने पर जगच्छेणी के असंख्यातवेंभागप्रमाण अवगाहनाविकल्प होते हैं। इन अवगाहनाविकल्पों से एकअवगाहनासम्बन्धी आनुपूर्वीविकल्पों को गुणित करने पर मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी के सर्वप्रकृति विकल्पों का जोड़ होता है।
देवानुपूर्वी देवक्षेत्रविपाकी है। देव सब त्रस होते हैं अत: उनका क्षेत्र विवक्षित ज्योतिर्लोक के अन्तपर्यन्त नौ सौ योजन से त्रसनाली के प्रतरक्षेत्र का गुणा करने पर जो प्रमाण हो उतना जानना। शेष देवों का उत्पत्ति क्षेत्र थोड़ा है। इससे उसकी विवक्षा यहाँ नहीं की है। ज्योतिषी देवों की ही मुख्यता से कथन किया है। पंचेन्द्रिय पर्याप्त तिर्यंच और मनुष्य ही देवों में जन्म लेते हैं। देवगति में गमन करते समय देवायु और देवगति के उदय के साथ देवानुपूर्वी के उदय से पूर्व आकार का नाश न होने से उनकी जघन्य अवगाहना संख्यात घनांगुल से उक्त क्षेत्र को गुणा करने पर प्रथम भेद होता है। उत्कृष्ट अवगाहना भी संख्यात घनांगुल प्रमाण है। उससे गुणा करने पर अन्तिम भेद होता है। सो “आदि अंते सुद्धे" सूत्र के अनुसार अन्त में से आदि को घटा कर एक का भाग देकर एक मिलाने पर जो प्रमाण हो उतने भेद देवगत्यानुपूर्वी के जानना।
'उत्सेधघनाङ्गुल के संख्यातवें भाग मात्र सर्वजघन्यअवगाहना के द्वारा देवगतिको जानेवाले सिक्थमत्स्य के एक देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी का विकल्प प्राप्त होता है। पुन: उसी सर्व जघन्य अवगाहना के द्वारा अलब्धपूर्व मुखाकार के साथ देवगति को जाने वाले सिक्थमत्स्य के देवगति प्रायोग्यानुपूर्वी का
१. धवल पुस्तक १३ पृ. ३८३-३८४