Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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गोम्मटसार कर्मकाण्ड-२१६
उत्कृष्टस्थिति पर्यन्त संख्यातपल्यप्रमाण पाए जाते हैं सो एक प्रकृति के स्थितिभेद संख्यातपल्यप्रमाण होते हैं तो पूर्वोक्त सर्व उत्तरोत्तर प्रकृतिभेदों के स्थिति सम्बन्धी भेद कितने होते हैं? इस प्रकार त्रैराशिक द्वारा प्रकृतिविकल्प के प्रमाण से संख्यातपल्यगुणे स्थिति के भेद होते हैं तथा इन स्थिति के भेदों से स्थिति बन्धाध्यवसायस्थान असंख्यातगुणे हैं। प्रकृतियों के अपने-अपने उदय से जो परिणाम उत्पन्न होते हैं उनकी ही अपनी-अपनी स्थिति बन्ध में कारण होने से स्थितिबन्धाध्यवसायस्थान सञ्ज्ञा है। स्थितिबन्धाध्यवसायस्थान कषायस्थान नहीं है ।
अङ्कसन्दृष्टि - एक प्रकृति की स्थितिबन्ध के कारण रूप परिणाम ३१०० हैं और उस एक प्रकृति के स्थिति भेद ४० स्थिति स्थान जानने | नानागुणहानि ५ तथा नानागुणहानि प्रमाण दो के अ लिखकर परस्पर गुणा करने पर अन्योन्याभ्यस्तराशि ३२, एक गुणहानि में स्थिति का प्रमाण गुणहानि आयाम प्रमाणबालागुणानिशालाका का माग संस्थिति में देने पर जो प्रमाण हो वह गुणहानि आयाम का प्रमाण जानना । नानागुणहानि ५ का भाग स्थिति ४० में देने पर ४०५=८ प्राप्त हुए सो ८ एकगुणहानि आयाम जानना। इसको दूना करने पर दोगुणहानि का प्रमाण होता है। उन स्थिति के भेदों में सबसे जघन्यस्थिति बन्ध के कारण ऐसे स्थिति बन्धाध्यवसायस्थान सबसे स्तोक हैं उनका प्रमाण ९ है। “पदहतमुखमादिधनं" इस सूत्र से एक गुणहानि का जो आयाम वही पद है गच्छ ८ से हत अर्थात् गुणा हुआ मुख अर्थात् ९४८-७२ आदिधन हुआ। एक अधिक गुणहानि का भाग आदिस्थान में देने पर जो प्रमाण हो वह चय जानना । यहाँ गुणहानि के प्रमाण ८ को एकअधिक करने पर १ का भाग आदिस्थान ९ में देने पर ९६९-१ आया, यह चय जानना । एक-एक स्थान में एक-एक चय बढ़ता हुआ स्थितिबन्धाध्यवसायस्थान प्रथमगुणहानिपर्यन्त जानना, सो “व्येकपदार्थधनचयगुणोगच्छउत्तरधनं" अर्थात् एककम गच्छ के आधे को चय से गुणा करके पुन:गच्छ से गुणा करने पर जो प्रमाण हो वह सर्व चयधन जानना । यहाँ गच्छ ८ में से एककम करने पर ८-१-७, इसका आधा ३१, चयके प्रमाण १ से गुणा करने से ३३ ही रहे तथा इसको गच्छ के प्रमाण ८ से गुणा करने पर २८ हुए सो चयधन जानना तथा आदिधन और उत्तरधन (चयधन), इन दोनों को मिलाने पर प्रथमगुणहानि का सर्वद्रव्य होता है। आदिधन ७२ और उत्तरधन २८,दोनों को जोड़ने पर ७२+२८= १०० हुए। यह प्रथमगुणहानि का सर्वद्रव्य जानना तथा गुणहानि-गुणहानिप्रति दूना-दूना द्रव्य है अतः १००-२००४००-८०० और १६०० यह दूना-दूना क्रम एककम नानागुणहानि प्रमाण बार होता है। अन्तरस्थानों में अन्योन्याभ्यस्तराशि के आधे प्रमाण से आदि को गुणा करे जो प्रमाण होवे वह अन्तिम गुणहानि का प्रमाण जानना।
यहाँ नानागुणहानि ५ में से एक घटाने पर ५-१-४ रहे सो इतनी बार दो के अङ्क लिखकर (२४२४२४२) परस्पर गुणा करने पर १६ हुए सो यह अन्योन्याभ्यस्तराशि ३२ का आधा है। इस १६ १. धवल पु. ११ पृ. ३१०