Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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गोम्मटसार कर्मकाण्ड-२२१
उपर्युक्त सन्दृष्टि का स्पष्टीकरण इस प्रकार है
समयंप्रबद्ध की ६३०७ वाला कमीप हंधी और उसकी आवाधाकाल अधिक ४८ समय की स्थिति सम्बन्धी निषेक रचना आबाधाकाल में तो नहीं होती। आबाधाकाल व्यतीत होने के पश्चात् पहले समय में ५१२ परमाणुरूप प्रथमनिषेक है। अर्थात् पहले समय में ५१२ परमाणु खिरे। पीछे ३२-३२ कम प्रतिनिषेक द्रव्य दिया जाता है अर्थात् द्वितीयादि समयों में ३२-३२ घटते हुए परमाणु खिरे। प्रथम गुणहानि के काल में सर्वपरमाणु ३२०० हैं अर्थात् ३२०० परमाणु खिरे। द्वितीयगुणहानि का प्रथमनिषेक २५६ परमाणुओं का है। इसके पश्चात् प्रत्येक निषेक १६-१६ हीन रूप से हैं। द्वितीयगुणहानि में सर्वपरमाणु १६०० हैं अर्थात् इसमें सर्व परमाणु १६०० खिरे। इस प्रकार गुणहानिगुणहानिप्रति आधा-आधा द्रव्य है अर्थात् प्रत्येक गुण-हानि में आधे-आधे परमाणु खिरे। यहाँ सर्वगुणहानि में ६३०० परमाणु की इसी प्रकार रचना होती है, अर्थात् इस तरह सब गुणहानियों में ६३०० परमाणु खिरते हैं। सो जैसे अङ्कसन्दृष्टि के द्वारा कथन किया उसी प्रकार अर्थरूप भी जानना । विशेष इतना है कि जो द्रव्यादिक का प्रमाण जैसा हो वैसा ही जानना।
इसी कथन को मोहनीय कर्म की अपेक्षा से कहते हैं
मोहनीयकर्म की स्थिति सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण में से ७००० वर्ष आबाधाकाल को घटाने पर जो शेष रहे उसके जितने समय हों उसे स्थितिनिषेकरचना का प्रमाण जानना। पल्य की वर्गशलाका के अर्धच्छेदों को पल्य के अर्धच्छेदों में से घटाने पर जो प्रमाण रहे उसे नानागुणहानिशलाका का प्रमाण जानना । इसका भाग उस स्थिति में देने पर जो प्रमाण आवे उतना एकगुणहानि के आयाम का प्रमाण है, इसको दूना करने पर दो गुणहानिका प्रमाण होता है। नानागुणहानि प्रमाण दो के अङ्क लिखकर परस्पर गुणा करने से जो प्रमाण आवे वह अन्योन्याभ्यस्तराशि का प्रमाण जानना । अङ्कसन्दृष्टि में जैसा विधान कहा वैसा विधान करते हुए गुणहानि में और निषेकों में जितना द्रव्य का प्रमाण आवे उतना ही जानना | आबाधाकाल के पीछे प्रथमसमय में तो प्रथम गुणहानि के प्रथमनिषेक में जितना द्रव्य का प्रमाण हो उतने परमाणु खिरते हैं।
दूसरे समय के दूसरे निषेक में जितना द्रव्य का प्रमाण हो उतने परमाणु खिरते हैं। इस प्रकार एक गुणहानिके कालसम्बन्धी जितने समय हों उतने समयों में प्रथमगुणहानि का जितना द्रव्य हो उतने परमाणु खिरते हैं। पश्चात् (आगे) इसी क्रम से प्रत्येक गुणहानि में आधा-आधा द्रव्य खिरता है। अतः सर्वगुणहानियों में इसी क्रम से सम्पूर्ण समयप्रबद्ध का विभाजन होकर परमाणु खिरते हैं। सो इस प्रकार जो समयप्रबद्ध बंधता है उसके विभाजन का विधान है और एक-एक समयप्रबद्ध प्रत्येक समय में नवीन बंधते हैं उनका सन्ततिरूप अनादि सम्बन्ध है। प्रतिसमय एकसमयप्रबद्धप्रमाण, बंध और निर्जरा होने