Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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गोम्मटसार कर्मकाण्ड-२५७
से प्रथमस्थान १०० को गुणा करे तो १००४१६=१६०० हुए, यह अन्तिमगुणहानि का द्रव्यप्रमाण
जानना।
"अंतधणं गुणगुणियं आदिविहीणं रुऊणुत्तरभजिय" यह करणसूत्र स्थान-स्थानप्रति जो समान गुणकार होता है उनको जोड़ने के लिए है। अतः गणकार करते-करते अन्त में जो प्रमाण आवे उसको गुणकार के प्रमाण से गुणा करके लब्धराशि में से आदि के प्रमाण को घटाने से जो प्रमाण आवे उसमें एककम उत्तर (चय) का भाग देने से सर्वधन प्राप्त होता है। सो यहाँ अन्तस्थान का प्रमाण १६००
और दूना-दूना किया था, इससे गुणकार के प्रमाण दो से गुणा करने पर ३२०० हुए इसमें से आदि का प्रमाण १०० घटाने पर ३२००-१००-३१०० रहे। इस प्रकार पाँचों गुणहानिका जोड़ देने पर एक प्रकृति के स्थितिबन्ध के कारण ३१०० अध्यवसायस्थान जानने 1 यह अङ्कसन्दृष्टि अपेक्षा कथन हुआ। अब यथार्थ कथन करते हैं -एक प्रकृति के स्थिति बन्ध के कारण असंख्यातलोकप्रमाण स्थितिबन्धाध्यवसायस्थान हैं सो यह द्रव्य का प्रमाण है, एक प्रकृति के, जघन्यस्थिति से उत्कृष्टस्थितिपर्यन्त संख्यातपल्यप्रमाण स्थितिभेद स्थितिस्थान हैं, पल्य के अर्धच्छेदों के असंख्यातवें भाग मात्र नानागुणहानिका प्रमाण है तथा पल्य के असंख्यातवेंभाग मात्र अन्योन्याभ्यस्तराशि का प्रमाण
नानागुणहानिशलाकाका स्थिति में भाग देने पर जो प्रमाण हो सो गुणहानिआयाम जानना। इसको दूना करने पर दो गुणहानि होती है। यहाँ सर्वस्थिति के भेदों में जधन्यस्थितिबन्ध के कारण ऐसे स्थितिबन्धाध्यवसायस्थान सबसे स्तोक हैं, तथापि ये असंख्यातलोक मात्र हैं। पदहतमुखमादिधनं गच्छ से गुणित आदिस्थान ही आदिधन कहलाता है। एक अधिक गुणहानिआयाम का भाग आदि स्थान में देने पर चय का प्रमाण होता है, "व्येकपदार्थधनचयगुणोगच्छ उत्तरधनं" एककम गच्छ के आधे को चय से गुणा करके जो प्रमाण आवे उसको पुनः गच्छ से गुणा करने पर चयधन होता है तथा आदिधन
और चयधन इन दोनों को मिलाने पर प्रथमगुणहानि का सर्वद्रव्य होता है। इस प्रकार गुणहानिगुणहानिप्रति दूना-दूना होते-होते अन्त में एककम नानागुणहानिप्रमाण दूना होने से अन्योन्याभ्यस्तराशि के आधे प्रमाण से 'आदि' को गुणा करने पर जो प्रमाण हो वह अन्तिम गुणहानि का द्रव्य जानना, सो "अंतधणं गुणगुणिय आदिविहीणं रुऊणुत्तरं भजियं" इस सूत्र से अन्त में जो प्रमाण आया उसको गुणकार दो से गुणा करने पर तथा उसमें से आदि के प्रमाण को घटाकर उसमें एककम गुणकार के (२१-१) प्रमाण से भाग देकर जो लब्ध आया वह सर्वगुणहानिका धन जानना । इस प्रकार एकप्रकृति के संख्यातपल्यप्रमाण स्थिति भेदों के असंख्यातलोकप्रमाण स्थितिबन्धाध्यवसायस्थान हुए तो सर्व उत्तरोत्तर प्रकृतिभेदों के कितने स्थितिबन्धाध्यवसायस्थान होंगे? इस प्रकार त्रैराशिक करके स्थिति के भेदों से असंख्यातलोकगुणे होते हैं। इन स्थितिबन्धाध्यवसायस्थानों में अधःप्रवृत्तकरणवत् अनुकृष्टिविधान है सो निम्न प्रकार जानना