Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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गोम्मटसार कर्मकाण्ड-२१२ के असंख्यातवें भाग से तिर्यक्प्रतर को गुणित करने पर जितने आकाशप्रदेश उपलब्ध होते हैं उतने ही सिक्थमत्स्य की सबसे जघन्यअवगाहनाकी अपेक्षा नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी के विकल्प प्राप्त होते हैं यह उक्त कथन का तात्पर्य है। इनसे अधिक विकल्प नहीं प्राप्त होते हैं क्योंकि ऐसा स्वभाव है।
अब एकप्रदेश अधिक सबसे जघन्यअवगाहना के साथ नरकों में मारणान्तिक समुद्घात करके या उसके बिना विग्रहगति द्वारा उत्पन्न होने वाले सिक्थमत्स्यों के नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी के उतने ही विला होते.हैं। अधिक अल्लाह के अधिश सुहाकार प्राप्त नहीं होते, क्योंकि कारणरूप शक्ति में भेद होने से ही कार्य में भेद उत्पन्न होता है। समानशक्तिसंख्या से युक्त एक कारण के होने पर कार्य के संख्याविषयक भेद नहीं होता है, क्योंकि ऐसा मानने में विरोध आता है।
इस प्रकार पृथक्-पृथक सर्वअवगाहनाविकल्पों में नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी के सूच्यङ्गुल के असंख्यातवेंभाग से गुणित राजुप्रतरप्रमाण विकल्प कहने चाहिए। वे इस प्रकार प्राप्त होते हैं, ऐसा समझकर सिक्थमत्स्यकी अवगाहना को महामत्स्यकी अवगाहना में से घटाकर जो शेष रहे उसमें जघन्यअवगाहना के विकल्प की अपेक्षा एक मिलाने पर श्रेणी के असंख्यातवें भाग मात्र अवगाहनाविकल्प होते हैं, क्योंकि संख्यातघनाङ्गलों में भी श्रेणी के असंख्यातवें भाग रूप संख्या का व्यवहार होता हुआ देखा जाता है। पुनः यदि एक अवगाहना के विकल्प की अपेक्षा नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी के विकल्प अंगुल के असंख्यातवें भाग से गुणित तिर्यक्प्रतरप्रमाण प्राप्त होते हैं तो संख्यातघनागुल मात्र अवगाहनाविकल्पों के कितने नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वीविकल्प प्राप्त होंगे, इस प्रकार संख्यातघनाङ्गुलों से सूच्यङ्गुलके असंख्यातवें भाग मात्र तिर्यप्रतरों को गुणित करने पर जितने आकाशप्रदेश होते हैं उतनी ही नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वीकी उत्तरोत्तर प्रकृतियाँ होती हैं।
इसी प्रकार तिर्यंचानुपूर्वी तिर्यंच-क्षेत्रविपाकी है। सो तिर्यंच का क्षेत्र सर्वलोक है। नारकी, त्रसस्थावर तिर्यंच, कर्मभूमिया मनुष्य तथा सहस्रार स्वर्ग तक के देव तिर्यंचगति में उत्पन्न होते हैं। सो वे आनुपूर्वी के उदय से पूर्व शरीर के आकार को नहीं छोड़ते। अतः सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्याप्तक की जघन्य अवगाहना धनागुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण से पूर्वोक्त क्षेत्र को गुणा करने पर तिर्यंचानुपूर्वी का प्रथम भेद होता है तथा उत्कृष्ट अवगाहना संख्यात घनांगुल प्रमाण है, उससे गुणा करने पर अन्त का भेद होता है। सो "आदि अंते सुद्धे वहिहिदे रूवसंजुदे ठाणा" सूत्र के अनुसार अन्त में से आदि को घटा कर उसे एक से भाग देकर और उसमें एक मिलाने पर जो प्रमाण हो उतने भेद तिर्यंचानुपूर्वी के होते हैं।
१ सूक्ष्मनिगोदियालब्ध्यपर्याप्तक जीव के उत्सेधधनाङ्गुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण सबसे जघन्यअवगाहना के द्वारा तिर्यञ्चों में मारणान्तिकसमुद्घात करने पर एक तिर्यञ्चगति प्रायोग्यानुपूर्वीका
१. धवल पुस्तक १३ पृ.३७६-३७५