Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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गोम्मटसार कर्मकाण्ड-२१०
प्रमाण हैं और उनसे असंख्यातलोकगुणा मतिज्ञानावरणादि प्रकृतियों का समुदाय है। सर्वयोगस्थान के प्रमाण को असंख्यातलोक से गुणा करने पर सर्वउत्तरोत्तर कर्मप्रकृतियों का प्रमाण होता है।
विशेषार्थ : ज्ञानावरण की उत्तरप्रकृति ५ हैं। इनमें क्षायोपशमिक श्रुतज्ञान का भेद लब्ध्यक्षररूप ज्ञान तो निरावरण है। सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तक के जो जघन्यज्ञान होता है उसका नाम लब्ध्यक्षर है। नाश के बिना एक स्वरूप से अवस्थित रहने से केवलज्ञान अक्षर है, क्योंकि उसमें वृद्धि और हानि नहीं होती। द्रव्यार्थिकनयकी अपेक्षा चूंकि सूक्ष्मनिगोदलब्ध्यपर्याप्तक का ज्ञान भी ज्ञानसामान्य की अपेक्षा वही है अत: इस ज्ञान को भी अक्षर कहते हैं। इसका प्रमाण केवलज्ञान का अनन्तवाँभाग है, यह ज्ञान निरावरण है, क्योंकि अक्षर का अनन्तवाँभाग नित्य उद्घाटित रहता है, ऐसा आगम का वचन है अथवा इसके आवृत होने पर जीव के अभाव का प्रसङ्ग आता है। इस लब्ध्यक्षर ज्ञान में सर्वजीवराशि का भाग देने पर सर्वजीवराशि से अनन्तगुणे ज्ञानाविभागप्रतिच्छेद आते हैं। इस लब्ध्यक्षरज्ञान में सर्वजीवराशि का भाग देने पर ज्ञानाविभागप्रतिच्छो दी. अपेक्षा नीवश में अन्तमुगा सब्ध होतः है। इस प्रक्षेपको प्रतिराशिभूत लब्ध्यक्षरज्ञान में मिलाने पर पर्यायज्ञान का प्रमाण उत्पन्न होता है । इसके आगे असंख्यातलोक बार षट्स्थानपतित वृद्धि से बढ़ते हुए पर्यायसमास ज्ञान के भेद हैं। उनके आवरणकी अपेक्षा असंख्यातलोक मात्र छहस्थान प्रमाण पर्यायसमास श्रुतज्ञानावरण के भेद हैं तथा श्रुतज्ञान-मतिज्ञानपूर्वक होता है, अत: इतने ही मतिज्ञानावरण के भी भेद हैं, अवधिज्ञानावरण में धनााल के असंख्यातवें भागहीन लोकको सूच्यङ्गुल के असंख्यातवेंभाग से गुणा करने पर जो प्रमाण हो उसमें एक और मिलाने पर जो प्रमाण आवे उतने देशावधि के भेद हैं। अत: देशावधिआवरण के भी इतने ही भेद हैं तथा अग्निकायजीव के प्रमाण को अग्निकाय के शरीर की अवगाहना के भेदों के प्रमाण से गुणा करने पर जो प्रमाण हो उतने परमावधि के भेद हैं। अत: परमावधिआवरण के भी इतने ही भेद हैं तथा सर्वावधि एक ही प्रकार है इसलिए सर्वावधिआवरण का भी एक ही भेद है। बीसकोड़ाकोड़ीसागर समयप्रमाणवाले कल्पकाल को असंख्यात से गुणा करने पर जो प्रमाण हो उतने मन:पर्ययज्ञान के भेद हैं इसलिए मनः पर्ययज्ञान के आवरण के भी इतने ही भेद हैं और केवलज्ञान भेद से रहित है इसलिए इसके आवरण का भी एक ही भेद है। इस प्रकार सर्व मिलकर अवधि,मन:पर्यय और केवलज्ञानावरण से अधिक श्रुतज्ञानावरण से युक्त मतिज्ञानावरण प्रमाण ज्ञानावरण की प्रकृतियों के उत्तरोत्तर भेद हैं।
सब प्रकृतियाँ नामकर्म के निमित्त से होती हैं। अतः नामकर्म की प्रकृतियों में आनुपूर्वी प्रकृति के उत्तरोत्तर भेद कहते हैं। आनुपूर्वी क्षेत्रविपाकी है अत: क्षेत्र की अपेक्षा उसके भेद होते हैं। नरकानुपूर्वी नरकक्षेत्र विपाकी है। नरकक्षेत्र एक राजुप्रतर प्रमाण है। वहाँ उष्ट्रादि मुखाकारों के सिवाय अन्यत्र उत्पत्ति नहीं होती । अत: प्रमाणरूप सूच्यंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण आयाम से उसे गुणा करें। तथा पर्याप्त
१. ध. पु. १३ पृ. २६२
२, ध.पु. १३ पृ. २६३-२६४
३. ध.पु. १३ पृ. २७७