Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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गोम्मटसार कर्मकाण्ड-१९२
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चय का प्रमाण ऊपर बता चुके हैं। इसी तरह समान आयाम के धारक दूसरे योगस्थान के ऊ पर भी श्रेणी के असंख्यातवें भाग प्रमाण स्थान तक उत्तरोत्तर क्रम से चयवृद्धि होने पर दूसरा अपूर्व स्पर्धक उत्पन्न होता है। इसी क्रम से एक गुणहानि के स्पर्धकों को जितना प्रमाण कहा है उतने अपूर्व स्पर्धकों के उत्पन्न हो जाने पर जघन्य योगस्थान का प्रमाण दूना हो जाता है। इस क्रम से योगस्थानों का प्रमाण भी दूना-दूना होता जाता है और अन्त में चल कर संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीव का सर्वोत्कृष्ट योगस्थान उत्पन्न होता है।
विशेषार्थ - शंका - इस प्रकार अवस्थितक्रम से प्रक्षेपों की वृद्धि होने पर कितने योगस्थान जाकर एक अपूर्वस्पर्धक होता है?
समाधान - ऐसी शङ्का होने पर उत्तर देते हैं कि वह श्रेणी के असंख्यातवें भाग मात्र योगस्थान जाकर उत्पन्न होता है, क्योंकि साधिक चरम योगस्पर्धकमात्र वृद्धिके बिना अपूर्वस्पर्धक उत्पन्न नहीं होता | चरमस्पर्धक में योगप्रक्षेप श्रेणी के असंख्यातवें-भागमान हैं, क्योंकि एक योगप्रक्षेपका चरमस्पर्धक में भाग देने पर श्रेणी का असंख्यातवाँभाग पाया जाता है। इस कारण तत्प्रायोग्य श्रेणी के असंख्यातवेंभाग प्रमाण प्रक्षेपों की वृद्धि हो जाने पर वहाँ पूर्व के स्पर्धकों की अपेक्षा एक अधिक (नवीन) स्पर्धकों के अन्तिम स्पर्धक में जितने जीवप्रदेश हैं उतने जीवप्रदेश मात्र अनन्तर (अन्तिम) अधस्तनस्पर्धक के वर्गों को वृद्धिप्राप्त प्रक्षेपों में से ग्रहण करके ऊपर यथाक्रम से स्थापितकर फिर उनमें से चरमस्पर्धकके जीवप्रदेशों के बराबर ही जघन्यस्थानसम्बन्धी जघन्य (प्रथमवर्गणाके) वर्गों को ग्रहण करके उनमें ही यथाक्रम से मिलाकर शेष को पहिले के समान ही असंख्यातलोक से खण्डित करने पर जो लब्ध हो उसकी विवक्षित स्थानसम्बन्धी स्पर्धककी वर्गणाओं के जीवप्रदेशों से पृथक्-पृथक् गुपित करके इच्छित्त वर्गणा के जीवप्रदेशों को समखण्ड करके देने पर विवक्षित स्थान उत्पन्न होता है, ऐसा ग्रहण करना चाहिए । यहाँ से आगे एक-एक प्रक्षेपके बढ़ने पर स्पर्धक अवस्थित ही होकर श्रेणी के असंख्यातवेंभागमात्र स्थान उत्पन्न होते हैं फिर इस प्रकार अपूर्वस्पर्धक उत्पन्न होता है। इस प्रकार अन्तिम योगस्थान तक ले जाना चाहिए।
__ शंका- अब १+२+३+४+५-६+७+८+१+१०+११+१२+१३+१४+१५ इस प्रकार एकको आदि लेकर एक अधिक क्रम से जघन्यस्पर्धकशलाकाओं को स्थापितकर संकलनसूत्र के अनुसार मिलाकर ( S x१५- १२०) जघन्यस्थानसम्बन्धी जघन्यस्पर्धककी शलाकाओं का प्रमाण क्यों नहीं बतलाया?
समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि इन स्पर्धकशलाकाओं के असंख्यातवें भागमात्र
१. धवल पु. १० पृ. ४८७