Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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गोम्मटसार कर्मकाण्ड-१९०
गुणहानि के अन्तिमस्पर्धक की अन्तिमवर्गणा होती है तथा गुणहानि-पुणहानि प्रति आदिवर्गणा से आदिवर्गणा का संख्याप्रमाण आधा-आधा जानना और विशेष (चय) का भी प्रमाण आधा-आधा जानना। इससे प्रथमवर्गणा में दोगुणहानिका भाग देने पर विशेष (चय) का भी प्रमाण होता है, इसी कारण दोगुणहानि को निषेकहार कहते हैं ऐसा अङ्कसन्दृष्टि से कथन किया तथैव अर्थसन्दृष्टि से भी कथन जानना। सर्वजीवों के प्रदेश लोकप्रमाण, नानागुणहानि पल्यके असंख्यातवेंभागप्रमाण और एकगुणहानिका आयाम जगतश्रेणी के असंख्यातवेंभाग प्रमाण है। इस प्रकार इनमें यथायोग्य कथन जान लेना। ऊपर यह सर्वकथन किया जा चुका है, अतः यहाँ विशेष नहीं कहा है तथा वर्ग, वर्गणा, स्पर्धक, गुणहानि तथा नानागुणहानि और जघन्यस्थान में अविभागप्रतिच्छेद प्राप्त करने का विधान “धवल पु. १० योगचूलिका में पृ. ३९५ से ४१२ तक कहा है।"
अनुभागबन्ध में भी वर्ग, वर्गणा, स्पर्धक, गुणहानि, नानागुणहानिका कथन है तथा योग के प्रकरण में भी इसी प्रकार कथन है। दोनों में अन्तर इतना है कि अनुभागबन्ध में जो एक वर्ग की शक्ति है, वही उस वर्गणा की शक्ति है। प्रदेश की हीन्यधिकला से उस प्रानि में हामि बिन नहीं होती, वितु योगप्रकरण में वर्ग के शक्तिअंश में (वर्गणा में) वर्गों की संख्या से गुणा करनेपर वर्गणा की शक्ति प्राप्त होती है। जैसे प्रथमवर्गणा में १२८ जीवप्रदेश हैं और एक प्रदेश (वर्ग) के शक्तिअंश - अविभागप्रतिच्छेद १०० हैं तो प्रथमवर्गणाके कुल अविभागप्रतिच्छेद १००४१२८ - १२,८०० होते हैं। दूसरीवर्गणा में वर्गों की संख्या १२६ (चय हीन) है। वर्गके अविभागप्रतिच्छेद १०१ हैं। दूसरी वर्गणा के कुल अविभाग प्रतिच्छेद १०१ x १२६ = १२,७२६ । इस प्रकार दूसरी वर्गगा में शक्ति अंश की हानि हुई।
अंगुलअसंखभागप्पमाणमेत्तऽवरफड्ढयावड्ढी।
अंतरछक्कं मुच्चा, अवरट्टाणादु उक्कस्स ||२३०॥ अर्थ - जघन्ययोगस्थानमें अंगुलके असंख्यातवेंभाग प्रमाण स्पर्धक बढ़ने पर दूसरा योगस्थान होता है। छह अन्तरस्थानों को छोड़कर जघन्ययोगस्थानसे उत्कृष्टयोगस्थान तक प्रतिस्थान अंगुल के असंख्यातवेंभागप्रमाण स्पर्धकों की वृद्धि होती है।
विशेषार्थ - सूक्ष्मनिगोदियालब्ध्यपर्याप्तकजीव के पूर्वोक्त सबसे जघन्यउपपादयोग स्थान पाया जाता है इसके अनन्तर पश्चात्वतर्तास्थान को आदि लेकर सर्वोत्कृष्टयोगस्थान पर्यन्त सान्तर व निरन्तर और सान्तर-निरन्तर (उभय) सभी योगस्थानों में एक-एक योगस्थानके प्रति सूच्यंगुल के असंख्यातवेंभाग
१. बंधाणुभागखंडयघादेहि विणा उच्नडणा-ओकट्टणाहि बढि-हाणियो ण होति त्ति जाणावणट। एक परमाणुहि
द्विदाणुभागस्स हाणत्तपदुप्पायणहूँ। ण भिण्ण परमाणुट्टिद अणुभागो ट्ठाण । (ध. पु. १० पृ. १६) २. "पढमफद्दयस्स आदिवग्गणायामे आदिवग्गेण गुणिदे पढमफद्दय आदिवग्गणा होदि।" (ध.पु १० पृ. ४६४)