Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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गोम्मटसार कर्मकाण्ड-२०० २४२४२४२४२८३२ है। कुछकम तीनगुणहानि ११७ से कुल जीवद्रव्यको भाग देने पर यवमध्य के जीवों का प्रमाण १२८ प्राप्त होता है ॥२४५-२४६।।
विशेषार्थ : यव नामक अन्न बीच में मोटा होता है और ऊपर तथा नीचे क्रम से घटता-घटता होता है उसी प्रकार त्रसपर्यायसम्बन्धी योगस्थानों में यवाकार में जो मध्यका स्थान है वहाँ जीवों का प्रमाण बहुत है अर्थात् मध्यवर्ती स्थान के धारक जीव बहुत हैं तथा उस मध्य के स्थान से ऊपर के स्थानों में और नीचे के स्थानों में क्रम से जीवों का प्रमाण घटता-घटता है, उन स्थानों के धारकजीव क्रमसे घटते-घटते हैं। इस प्रकार यह यवाकार रचना है वहाँ नीचे की गुणहानिशलाका से ऊपर की गुणहानिशलाका का प्रमाण कुछ अधिक है। यवाकार जीवों की संख्यासम्बन्धी रचना में पहले अङ्कसन्दृष्टि से कथन करते हैं -
यहाँ द्रव्य तो सपर्याप्तजीवों का प्रमाण १४२२ और त्रसपर्याप्तजीसम्बन्धी परिणामयोगस्थानका अध्वान ३२,गुणहानिआयामका प्रमाण ४, ऐसी सर्वगुणहानि ८, इनको नानागुणहानि कहते हैं।अधस्तनगुणहानिका प्रमाण ३और उपरितनगुणाहानिका प्रमाण ५ इस प्रकार नागगुणहानि ८ होती हैं। नानागुणहानिकी संख्या के बराबर (उतनीबार) दो का अङ्क लिखकर परस्परगुणा करनेसे अन्योन्याभ्यस्तराशिका प्रमाण आता है सो अधस्तनअन्योन्याभ्यस्तराशि (२x२x२) ८ है .एवं उपरितनअन्योन्याभ्यस्तराशिका प्रमाण (२x२x२x२x२) ३२ है तथा दोनों अन्योन्याभ्यस्तराशियाँ मिलकर (३२+८) ४० प्रमाण होती हैं। यहाँ कुछ कम तीनगुणी गुणहानिका भाग द्रव्य में देनेपर जीवों की संख्या यवाकारके मध्यकी होती है, सो गुणहानिके आयाम का प्रमाण ४ को तिगुना करने से (४५३) १२ हुए। किंचित् ऊन कहनेका यहाँ अभिप्राय यह है कि एक के ६४ भागों में ५७ भाग ( घटाने से समच्छेदविधान द्वारा ७११ का ६४ वाँ भाग ( ७१३ हुआ सो इसका भाग सर्वद्रव्य १४२२ में देनेपर ( १४२२
) १२८ आया सो यह यवाकार में मध्य का प्रमाण जानना, क्योंकि मध्य में जीव अधिक हैं, ऐसा कहा गया है ।
मध्यसे उपरितन और अधस्तनगुणहानिके निषेकोंमें से अपनी-अपनी गुणहानिसम्बन्धी विशेष (चय) का प्रमाण क्रमसे हीन जानना। अपनी-अपनी गुणहानिके प्रथमनिषेक (१२८) को दोगुणी गुणहानिके आयामप्रमाणरूप दोगुणहानि (२४४८) का भाग देने पर जो (१२८८-१६) प्रमाण हो अथवा अन्तिमनिषेक (८०) में एकअधिक गुणहानि (१+४-५) का भाग देनेपर जो लब्ध आवे (८०:५-१६) वह विशेष (चय) का प्रमाण जानना। अत: अधस्तन और उपरितन गुणहानिका द्रव्य और विशेष (चय) आधा-आधा (१६, ८, ४, २ व १) जानना। इसीको कहते हैं -
१. धवल पु. १० पृ.८०