Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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गोम्मटसार कर्मकाण्ड-१९१
प्रमाण जघन्यस्पर्धक युगपत् बढ़ते हैं तब उत्तरोत्तरस्थान होता है। प्रथमजघन्यस्थान से सूच्यङ्गुल के असंख्यातवेंभाग प्रमाण जघन्यस्पर्धक दूसरेस्थान में अधिक है। द्वितीययोगस्थानमें स्पर्धकविन्यास की वृद्धि नहीं है, किन्तु दोनों ही स्थानों में स्पर्धक समान हैं इसलिए जघन्ययोगस्थान सम्बन्धी स्पर्धक स्तोक हैं ऐसा कहने पर जघन्ययोगस्थान को जघन्यस्पर्धकके प्रमाण से (गुणा?) करनेपर उपरिमयोगस्थानके जघन्यस्पर्धकों की अपेक्षा वे स्तोक हैं यह अभिप्राय हैं।'
श्रेणीके असंख्यातवेंभाग प्रमाण जघन्ययोगस्थानके प्रक्षेपभागहारका विरलन कर जघन्ययोगस्थान को समखण्ड करके देनेपर प्रत्येक विरलनरूप के प्रति एकयोगप्रक्षेपका प्रमाण प्राप्त होता है। अब उनमें से एक प्रक्षेप को ग्रहणकर जघन्ययोगस्थान को प्रतिराशि करके उसमें मिला देने पर द्वितीयस्थान होता है। द्वितीयप्रक्षेपको ग्रहणकर द्वितीयस्थानको प्रतिराशि करके उसमें मिला देने पर तृतीययोगस्थान होता है। पश्चात् तृतीयप्रक्षेपको ग्रहणकर तृतीययोगस्थान को प्रतिराशि करके उससे मिला देने पर चतुर्थयोगस्थान होता है। इसप्रकार विरलन मात्र सर्वप्रक्षेपों के प्रविष्ट होने तक ले जाना चाहिए तज दुगुणी वृद्धिका स्थान उत्पन्न होता है।
जघन्ययोगस्थानसम्बन्धी प्रक्षेपभागहारका जो कि श्रेणी के असंख्यातवेंभाग प्रमाण व कृतयुग्म है, जघन्यस्थान के स्पर्धकों में भाग देने पर अंगुल के असंख्यातवेंभाग मात्र जघन्यस्पर्धकप्रमाण एक योगप्रक्षेप आता है। यह योगप्रक्षेप वृद्धि व हानि का अभाव होने से अवस्थित है। इस प्रक्षेप में जघन्यस्थान को प्रतिराशि करके मिलाने पर द्वितीययोगस्थान के स्पर्धकसम्बन्धी अविभागीप्रतिच्छेद विशेष अधिक हैं, ऐसा कहा गया है। इन अंगुल के असंख्यातवेंभाग मात्र जघन्यस्पर्धकों से चरमस्पर्धकसे आगे अपूर्वस्पर्धक उत्पन्न नहीं होता, क्योंकि चरमस्पर्धकके अविभागप्रतिच्छेदों से प्रक्षेप के अविभागप्रतिच्छेद असंख्यातगुणे हीन पाये जाते हैं। इसलिए ये प्रक्षेपअविभागप्रतिच्छेद यथास्वरूप से लोकमात्र जीवप्रदेशों में विभक्त होकर गिरते हैं ऐसा ग्रहण करना चाहिए।'
अब छह अन्तरों को छोड़कर जघन्यस्थान से उत्कृष्टस्थानपर्यन्त जीवों के योगस्थान होते हैं, सो कहते हैं -
सरिसायामेणवरि, सेढिअसंखेज्जभाग ठाणाणि।
चडिदेक्केक्कमपुव्वं, फट्टयमिह जायदे चयदो।।२३१ ॥ अर्थ - समानआयामवाले स्थानों के ऊपर चय से श्रेणी के असंख्यातवेंभागप्रमाण स्थान चढ़नेपर एक अपूर्वस्पर्धक उत्पन्न होता है।
१. धवल पु.१०.४८२
२. धवल पु.१० पृ. ४८९।
३.धवल पु. २ पृ. ४८४-८५