Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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गोम्मटसार कर्मकाण्ड-१७६
का स्वामी भी उक्त जीव ही है, किन्तु २५ प्रकृतियों के स्थान पर २६ प्रकृतियाँ कहनी चाहिए। सर्व पर्याप्तियों से पर्याप्त नामकर्म की २९ प्रकृतियों के साथ सातमूलप्रकृतियों का बन्ध करने वाला और उत्कृष्टयोग से युक्त अन्यतर सम्यग्दृष्टिमनुष्य तीर्थङ्करप्रकृति के उत्कृष्टप्रदेशबन्ध का स्वामी है। अब मूलप्रकृतिमें जघन्यप्रदेशबन्धसम्बन्धी स्वामित्व कहते हैं -
सुहुमणिगोद अपज्जत्तयस्स पढमे जहण्णये जोगे।
सत्तण्हं तु जहणणं, आउगबंधेवि आउस्स ॥२१५ ।। अर्थ - सूक्ष्मनिगोदलब्ध्यपर्याप्तकजीव अपनी पर्याय के प्रथमसमय में जघन्य उपपादयोग से आयुबिना सातमूल प्रकृतियों का जघन्यप्रदेशबन्ध करता है। पश्चात् आयुका बन्ध होने पर उसीजीव के आयुकर्म का भी जघन्यप्रदेशबन्ध होता है। अथानन्तर उत्तरप्रकृतियों में प्रदेशबन्धसम्बन्धी स्वामित्व कहते हैं -
घोडणजोगोऽसण्णी, णिरयदुसुर्राणरयआउगजहण्णं ।।
अपमत्तो आहारं, अयदं तित्थं च देवचऊ ॥२१६॥ अर्थ - घोटमानयोगों का धारक असञ्जीजीव नरकद्विक, नरकायु और देवायुका जघन्यप्रदेशबन्ध करता है तथा आहारकद्विकका अप्रमत्तगुणस्थानवतींजीव जघन्यप्रदेशबन्ध करता है क्योंकि अपूर्वकरण से वह अधिक प्रकृतियों को बाँधता है। असंयतगुणस्थानवर्तीजीव तीर्थकरप्रकृति और देवचतुष्क (देवगति, देवगत्यानुपूर्वी, वैक्रियकशरीर, वैक्रियकअनोपाङ्ग) इन ५ प्रकृतियों का जघन्यप्रदेशबन्ध करता है।
विशेषार्थ - घोटमान योग - जिन योगस्थानों की वृद्धि भी हो, हानि भी हो अथवा जैसे के तैसे भी रहें, उन योगस्थानों को घोटमान योग कहते हैं । नामकर्म की ३१ प्रकृतियों के साथ आठ प्रकार के कर्मों का बन्ध करने वाला और घोटमान जघन्ययोग से युक्त अन्यतर अप्रमत्तसंयतजीव आहारकद्विक (आहारकशरीर व आहारकशरीरअनोपाज) का जघन्यप्रदेशबन्ध करता है। नामकर्म की २९ प्रकृतियों के साथ सातमूलकर्मोंका बन्ध करने वाला और जघन्ययोग से युक्त प्रथमसमयवर्ती तद्भवस्थ अन्यतर असंयतसम्यग्दृष्टिमनुष्य देवगति, देवगत्यानुपूर्वी, वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिकशरीराजोपात्रका जघन्यप्रदेशबन्ध करता है। नामकर्म की ही ३० प्रकृतियों के साथ सातप्रकार के कर्मों का बन्ध करनेवाला और जघन्यउपपादयोग से युक्त प्रथमसमयवर्ती तद्भवस्थ अन्यतर देव या नारकी तीर्थङ्करप्रकृतिका जघन्यप्रदेशबन्ध करता है। १. महाबन्ध पु. ६ पृ. ९५ पर समाप्त। २. महाबन्ध पु. ६ पृ. ११५ । ३. महानन्ध पु. ६ पृ. ११४॥ ४. महाबन्ध पु.६ पृ. ११५|