Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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गोम्मटसार कर्मकाण्ड-१७९
आगे प्रकृति और प्रदेशबन्ध के कारणरूप योगस्थान का स्वरूप-संख्या और स्वामी ४२ गाथाओं से कहते हैं --
जोगट्ठाणा तिविहा, उववादेयंतवड्डिपरिणामा।
भेदाएक्केक्कंपि य, चोद्दसभेदा पुणो तिविहा ॥२१८ ।। अर्थ - योगस्थान तीनप्रकार के हैं - उपपादयोगस्थान, एकान्तवृद्धियोगस्थान और परिणामयोगस्थान तथा इनमें भी १४ जीवसमासकी अपेक्षा प्रत्येक के १४-१४ भेद हैं उनमें भी प्रत्येकके जघन्य, उत्कृष्ट और अजघन्यअनुत्कृष्ट के भेद से तीन भेद हैं।
विशेषार्थ - उत्पन्न होने के प्रथमसमय में उपपादयोग होता है, द्वितीय समय से लेकर शरीरपर्याप्ति से अपर्याप्त रहने के अन्तिमसमय तक एकान्तानुवृद्धियोग होता है। विशेष इतना है कि लब्ध्यपर्याप्तकों के आयुबन्धके योग्य काल से नीचे अर्थात् अपने जीवितके दो त्रिभाग में एकान्तानुवृद्धियोग होता है। एकान्तानुवृद्धियोग के पश्चात् परिणामयोग होता है। सात लब्ध्यपर्याप्त जीवसमासों के उपपादयोगस्थान, एकान्तानुवृद्धियोगस्थान और परिणामयोगस्थान अर्थात् तीनों ही योगस्थान होते हैं। सात निवृत्त्यपर्याप्त जीवसमासों के उपपादयोगस्थान व एकान्तानुवृद्धियोगस्थान होते हैं। सात निवृत्तिपर्याप्तकों के परिणामयोगस्थान ही होता है। आगे उपपादयोगस्थान का स्वरूप कहते हैं -
उववादजोगठाणा भवादिसमयट्ठियस्स अवरवरा ।
विग्गहइजुगदिगमणे जीवसमासे मुणेदव्वा ॥२१९ ।। अर्थ - उपपादयोगस्थान की एकसमय की स्थिति होती है, मोड़ेवाली विग्रहगति के प्रथमसमय में जघन्यउपपादयोगस्थान होता है, तथा जो जीव बिना मोड़ा के ऋजुगति से सीधा जाकर नवीनपर्याय को धारणकरे उसके प्रधमसमय में उत्कृष्ट उपपादयोगस्थान होता है वे उपपादयोगस्थान १४ जीवसमासों में जानना चाहिए।
विशेषार्थ - शंका - पर्याय धारण करनेके प्रथमसमयमें तो अपर्याप्तावस्था ही है वहाँ पर्याप्तजीवसमास में उपपादयोगस्थान कैसे कहा?
समाधान - निर्वृत्त्यपर्याप्तजीव के पर्याय धारण करने के प्रथमसमय में जो योगस्थान होता है वह पर्याप्तजीवसमास में उपपादयोगस्थान जानना, क्योंकि उसके पर्याप्तनामकर्मका उदय है और
१. धवल पु. १० पृ. ४२०
२. धवल पु.१० पृ. ४०३