Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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गोम्मटसार कर्मकाण्ड - १८२
विशेष - योगस्थान अल्पबहुत्व - सात लब्धपर्याप्तकों के उपपाद योगस्थान सबसे स्तोक हैं, उनसे उनके एकान्तानुवृद्धि योगस्थान असंख्यातगुणे हैं, उनसे उनके ही परिणाम योगस्थान असंख्यातगुणे हैं। सात निर्वृत्त्यपर्याप्त जीवसमासों के उपपाद योगस्थान सबसे स्तोक हैं, उनसे उनके ही एकान्तानुवृद्धि योगस्थान असंख्यातगुणे हैं। सात निर्वृत्ति पर्याप्तकों के अल्पबहुत्व नहीं है क्योंकि परिणाम योगस्थानों को छोड़कर उनमें अन्य योगस्थानों का अभाव है। गुणकार सब जगह पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग है।'
अब योगस्थान के अवयव कहते हैं
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अविभागपडिच्छेदो, वग्गो पुणे वग्गणा य फट्टयगं ।
गुणहाणीवि य जाणे, ठाणं पडि होदि णियमेण ।। २२३ ।।
अर्थ- सर्व स्थान स्थान, सर्व एकान्तानुवृद्धियोगस्थान व सर्वपरिणामयोगस्थान इन तीनों में से प्रत्येक जगत्श्रेणी के असंख्यातवेंभाग प्रमाण हैं उनमें एक-एक स्थान के प्रति अविभागप्रतिच्छेद, वर्ग, वर्गणा, स्पर्धक और गुणहानि ये पांच भेद हैं। जगत्श्रेणी अर्थात्, सात राजू के जितने प्रदेश होते हैं उनके असंख्यातवेंभाग सर्वयोगस्थानों की संख्या है।
विशेषार्थ - अविभागप्रतिच्छेदों के समूहको वर्ग कहते हैं, वर्ग के समूह को वर्गणा, वर्गणाओं के समूह को स्पर्धक अथवा जिसमें क्रमवृद्धि और क्रमहानि होती है वह स्पर्धक है तथा स्पर्धकके समूह को गुणहानि कहते हैं एवं गुणहानि के समूहको नानागुणहानि और नानागुणहानिका का समूह योगस्थान है।
आगे इनका स्वरूप कहते हैं
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पल्लासंखेज्जदिमा, गुणहाणिसला हवंति इगिठाणे । गुणहाणिफयाओ, असंखभागं तु सेढीये ॥ २२४ ॥
अर्थ - एक योगस्थान में गुणहानि की शलाकाएं (संख्या) पल्य के असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं। यह नानागुणहानिका प्रमाण है और एकगुणहानि में स्पर्धक जगत्श्रेणी के असंख्यातवभाग प्रमाण है। विशेषार्थ - अनन्तरोपनिधा की अपेक्षा जघन्य योगस्थान में स्पर्द्धक सबसे थोड़े होते हैं। इनसे दूसरे योगस्थान में स्पर्धक विशेष अधिक होते हैं। इनसे तीसरे योगस्थान में स्पर्धक विशेष अधिक होते हैं। इस प्रकार उत्कृष्ट योगस्थान के प्राप्त होने तक वे उत्तरोत्तर विशेष अधिक विशेष अधिक होते हैं। यहाँ विशेष का प्रमाण अंगुल के असंख्यातवें भागप्रमाण स्पर्धक हैं।
१. धवल पु. १० पृ. ४०४ २. धवल पु. १० पृ. ४०४ ३. धवल पु. १० पृ. ४५२