Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
View full book text
________________
गोम्मटसार कर्मकाण्ड - १८७
लिखना । वे प्रदेश प्रथमवर्गणा में जितने प्रदेश कहे थे उनमें एकविशेष ( चय) प्रमाण कम जानने । प्रथमवर्गणा में जितने प्रदेश हैं उसमें दो गुणहानिका भाग देने पर जो प्रमाण हो वह विशेष ( चय) का प्रमाण जानना । ' विशेषकी सन्दृष्टि 'वि' जानना, जो एकगुणहानि में वर्गणाओं का प्रमाण है उसको दूना करने पर दोगुणहानि का प्रमाण होता है। इस प्रकार प्रथमवर्गेणा के प्रदेशों में से विशेष ( चय) का प्रमाण घटाने पर जो प्रमाण शेष रहे उतने प्रदेशों के समूह की द्वितीयवर्गणा होती है। यहाँ पूर्वोक्त जघन्यशक्ति से एक अविभागप्रतिच्छेद अधिक शक्ति के धारक प्रदेशों को वर्ग कहते हैं और इनके समूहको द्वितीयवर्गणा जानना तथा द्वितीयवर्गणासम्बन्धी वर्ग में जितने अविभागप्रतिच्छेद हैं उससे एक अविभागप्रतिच्छेद जिसमें बढ़ता हो ऐसी शक्तिके धारक जितने जीवप्रदेश हों उतने उसके ऊपर लिखना सो द्वितीयवर्गणा में कहे उनमें से विशेष ( चय) का प्रमाण घटाने पर जितना प्रमाण रहे उतने जानने । यहाँ द्वितीयवर्गणासम्बन्धी वर्गके अविभागप्रतिच्छेद से एक अविभागप्रतिच्छेदअधिक शक्ति के धारक प्रदेश hasta कहते हैं उनका समूह तृतीयवर्गणा जाननी। इसी क्रमसे एक-एक अविभागप्रतिच्छेदसे अधिकशक्ति लिये हुए एक-एक विशेष ( चय) रूप से घटते घटते प्रमाण सहित वर्गों के समूहरूप एक-एक वर्गणा होती है। इसी प्रकार जगत्श्रेणी के असंख्यातवेंभाग प्रमाण वर्गणा होती है उसी समय प्रथमस्पर्धक होता है । इसीलिए एक स्पर्धक में जगत्श्रेणी के असंख्यातवेंभागप्रमाण वर्गणा कही है इसकी सहनानी ४ का अब है। इस प्रथमस्पर्धकको ही जघन्यस्पर्धक कहते हैं तथा इस प्रथमस्पर्धककी अन्तिमवर्गणा के वर्ग में अविभागप्रतिच्छेदों का जो प्रमाण हुआ उसके ऊपर असंख्यातलोकप्रमाण अन्तर देकर प्रथमस्पर्धकके प्रथमवर्गणासम्बन्धी जघन्यवर्ग में जितने अविभागप्रतिच्छेद हैं उनसे दूने अविभागप्रतिच्छेद के धारक वर्ग पाये जाते हैं, उससे कम शक्तिके धारक कोई प्रदेश नहीं पाए जाते। जघन्यवर्ग से दूने अविभागप्रतिच्छेदरूपशक्ति को धारण करनेवाले जो जीवप्रदेश हैं उन्हें वर्ग जानना और इनका समूह द्वितीयस्पर्धककी प्रथमवर्गणा जाननी । प्रथमस्पर्धककी अन्तिमवर्गणा में जो वर्गों की संख्या है उसमें से एक चय घटाने पर द्वितीयस्पर्धक की प्रथमवर्गणा में वर्गों की संख्या प्राप्त होती है। इस प्रथमवर्गणा के 'वर्ग से एक अविभागप्रतिच्छेद अधिक शक्ति के धारक जीवप्रदेश अर्थात् वर्ग हैं और ऐसे वर्गों का समूह द्वितीयवर्गणा है। उस द्वितीयस्पर्धक की प्रथमवर्गणासम्बन्धी प्रदेशों के प्रमाण में एक विशेष ( चय) के प्रमाण से कम और एक अविभागप्रतिच्छेद अधिकवाले प्रदेशरूपवर्गों का समूह द्वितीयस्पर्धक की द्वितीयवर्गणा है। इसी क्रम से आगे प्रत्येकवर्गणा में एक-एक अविभागप्रतिच्छेदरूप से अधिक शक्ति को लिये एक-एक विशेष ( चय) से घटते प्रमाण को लिये हुए वर्ग होते हैं। जगत्श्रेणी के असंख्यातवेंभागप्रमाण वर्गणाओं के समूहों को द्वितीयस्पर्धक जानना ।
१. ध. पु. १० पृ. ४४४ विशेष का प्रमाण " श्रेणी के असंख्यातवेंभाग से खंडित प्रथमवर्गणा । " २. ध. पु. १० पृ. ४५२ 'जिसमें क्रमसे (एक-एक अविभागप्रतिच्छेदकी) वृद्धि हो वह स्पर्धक है। ३. घ. पु. १० पृ. ४५५ सूत्र १८४ ।