Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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गोम्मटस्सार कर्मकाण्ड-१८३
परम्परोपनिधाकी अपेक्षा जघन्ययोगस्थान में जो स्पर्धक हैं उनसे जगत्श्रेणी के असंख्यातवेंभाग प्रमाण स्थान जाकर स्पर्धकों की दूनी वृद्धि होती है। इस प्रकार उत्कृष्टयोगस्थान के प्राप्त होने तक दूनीदूनी वृद्धि जानना चाहिए। एकयोग द्विगुणवृद्धिस्थानान्तर जगलश्रेणी के असंख्यातवेंभाग प्रमाण है और नानायोगद्विगुणवृद्धि स्थानान्तर पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। तदनुसार नानायोगद्विगुणवृद्धिस्थानान्तर स्तोक हैं और इनसे एकयोगद्विगुणवृद्धिस्थानान्तर असंख्यातगुणे हैं।
फड्डयगे एक्केक्के वग्गणसंखा हु तत्तियालावा।
एक्केक्कवग्गणाए असंखपदरा हु वग्गाओ ||२२५॥ अर्थ - एक-एक स्पर्धक में वर्गणाओं की संख्या उतनी ही अर्थात् जगत्श्रेणी के असंख्यातवें भाग प्रमाण है और एक-एकवर्गणा में असंख्यात जगत्प्रतरप्रमाणवर्ग हैं।
विशेषार्थ - योग अविभाग प्रतिच्छेदों की अपेक्षा समान सब जीवप्रदेशों को ग्रहण कर एक वर्गणा होती है। ऐसी जगत्श्रेणिके असंख्यातवेंभागप्रमाण वर्गणाएँ मिलकर एकस्पर्धक होता है। जगत्श्रेणी को जगत्श्रेणी से गुणा करना अर्थात् ७ राजू x ७ राजू = ४९ वर्गराजू, इसको जगत्प्रतर कहते हैं। एक वर्गणा में असंख्यात जगत्प्रतर प्रमाण वर्ग हैं तो जगत्श्रेणी के असंख्यातवें भागप्रमाण वर्गणा में कितने वर्ग होंगे? (वर्गणा में वर्ग) असंख्यातजगत्प्रतर - श्रेणी/असंख्यात (वर्गणाओं की संख्या) = लोकपूर्ण अर्थात् समस्तजीवप्रदेश | अथवा श्रेणीके असंख्यातवेंभाग वर्गणाशलाकाओं में यदि लोकप्रमाण जीवप्रदेश पाये जाते हैं तो एक वर्गणा में कितने प्रदेश पाये जावेंगे, इस प्रकार प्रमाण से फल गुणित इच्छाको अपवर्तित करने पर असंख्यात प्रतर प्रमाण जीव प्रदेश एक-एक वर्गणा में होते हैं।
एक्केक्के पुण वग्गे असंखलोगा हवंति अविभागा।
अविभागस्स पमाणं जहण्णउही पदेसाणं ॥२२६ ॥ अर्थ - एक-एक वर्ग में असंख्यातलोकप्रमाण अविभागप्रतिच्छेद होते हैं और अविभागप्रतिच्छेदोंका प्रमाण प्रदेशोंमें शक्तिकी जघन्यवृद्धिरूप जानना।
भावार्थ - एक-एक जीवप्रदेश में असंख्यातलोकप्रमाण योगाविभागप्रतिच्छेद होते हैं। जिसका दूसराभाग न हो सके ऐसे शक्ति के अंशको अविभागप्रतिच्छेद कहते हैं । यहाँ पर्यन्त विपरीतक्रम से १. महाबन्ध पु. ६ पृ.७,८ २. ध. पु. ५० पृ. ४४३ ३. महाबन्ध पु. ६ पृ. ६ । ४. घ. पु. १० पृ. ४४० सूत्र १७८ । ५. ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं, किन्तु यह घटित नहीं होता, क्योंकि ऐसा स्वीकार किया जावे तो जिस प्रकार कर्म
के अविभागप्रतिच्छेद अनन्त होते हैं, किन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि योग के अविभागप्रतिच्छेदों का प्रमाण असंख्यातलोकप्रमाण है ऐसा यहाँ ऊपर गाथा सूत्र में भी कहा गया है। (ध. पु. १० पृ. ४४१)