Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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गोम्मटसार कर्मकाण्ड-१८१
सगपज्जतीपुण्णे, उवरिं सव्वत्थ जोगमुक्कस्सं ।
सव्वत्थ होदि अवरं, लद्धिअपुण्णस्स जेहें वि॥२२१॥ अर्थ- अपनी-अपनी शरीरपर्याप्नि पूर्ण होने पर उसके प्रथम समय से लेकर ऊपर आयु के सब समयों में परिणाम योगस्थान होता है तशा मन्त्र समन्यों में उत्कृष्ट भी होता है और जघन्य भी होता है। लब्ध्यपर्याप्तकों के अपनी स्थिति के (श्वास के अठारहवें भाग प्रमाण) अन्तिम विभाग के प्रथम समय से लेकर अन्तिम समय पर्यन्त सब स्थिति के समयों में उत्कृष्ट परिणाम योगस्थान भी होता है
और जघन्य परिणाम योगस्थान भी होता है। पर्याप्त और अपर्याप्त दोनों ही प्रकार के जीवों के वे सब परिणाम योगस्थान घोटमान योग ही होते हैं क्योंकि वे घटते भी हैं, बढ़ते भी हैं और जैसे के तैसे भी रहते हैं।।२२१॥
विशेषार्थ - सूक्ष्म व बादर निर्वत्तिपर्याप्तकों के शरीरपर्याप्ति से पर्याप्त होने के प्रथमसमय में ही जघन्य परिणामयोग होता है। परम्परापर्याप्तिसे अर्थात् सर्वपर्याप्तियोंसे पर्याप्त हुए उनके ही उत्कृष्टपरिणामयोग होता है उसके आगे सूक्ष्म व बादर लब्ध्यपर्याप्तकों के उत्कृष्टपरिणामयोग होते हैं।' परिणामयोग के संबंध में दो मत हैं। एक मतानुसार सर्व पर्याप्तियों से पर्याप्तक होने पर परिणामयोग होता है। दूसरे मतानुसार शरीर पर्याप्ति से पर्याप्त होने के प्रथम समय में परिणामयोग होता है। अथानन्तर एकान्तानुवृद्धियोगस्थान का स्वरूप कहते हैं -
एयंतवडिवठाणा, उभयट्ठाणाणमंतरे होति।
अवरवरट्ठाणाओ, सगकालादिम्हि अंतम्हि ॥२२२॥ अर्थ - उपपादयोग और परिणामयोगरूप दोनों स्थानों के बीच में अर्थात् पर्याय धारण करने के द्वितीयसमय से शरीर पर्याप्ति पूर्ण होने के पूर्वसमयतक एकअन्तर्मुहूर्तकालपर्यन्त अपर्याप्तावस्था में एकान्तानुवृद्धियोगस्थान होते हैं। उस एकान्तानुवृद्धिका जघन्य स्थान तो अपने काल के प्रथमसमय में
और उत्कृष्टस्थान अन्तिमसमय में होता है। अतएव एकान्त अर्थात् नियमसे अपनेसमयों में समय-समय प्रति असंख्यात-असंख्यातगुणी अविभागप्रतिच्छेदों की वृद्धि जिसमें हो वह एकान्तानुवृद्धिस्थान है। इस प्रकार योगों के विशेष १४ जीवसमासों में जानना । लब्ध्यपर्याप्तकों के जीवित के अन्तिम विभाग के नीचे एकान्तानुवृद्धियोग होता है। १. सुहुम-बादराणं णिवत्तिपज्जत्तयाणमेदे जहण्णया परिणामजोगा। सरीरपजत्तीए पजत्तयदस्स पढम समए चेव होदि।
तस्सुवरि तेसिं चेव उच्चस्सिया परिणामजोगा। परंपरपजातीए पज्जत्तयदस्स । तदुवरि सुहम - बादराण
लद्धिअपज्जत्तयाणमुक्कस्सया परिणामजोगा। (धबल पु. १० पृ. ४२२) २. धवल पु. १० पृ. ५५, सूत्र २४ की टीका। ३. धवल पु. १० पृ. ४२२।