Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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गोम्मटसार कर्मकाण्ड-१८०
लब्ध्यपर्याप्तकजीव के पर्याय के प्रथम समय में जो योगस्थान होता है वह अपर्याप्तजीवसमास में उपपादयोगस्थान जानना, क्योंकि उसे अपर्याप्तनामकर्मका उदय है। 'उपपद्यते' अर्थात् जीवके द्वारा पर्यायके प्रथमसमय में प्राप्त किया जाए वह उपपाद है, इस उपपादयोगस्थान के सर्वमान्य को आदि से लेकर जो भेद हैं वे जीवकी नवीनपर्याय धारण करने के प्रथमसमय में ही होते हैं। उसका जघन्य व उत्कृष्टकाल एक समय है। विग्रहगति में वर्तमान जीव के तद्भवस्थ होने के प्रथमसमय में जघन्यउपपादयोग होता है। ऋजुगति से तद्भवस्थ होने के प्रथमसमय में उत्कृष्टउपपादयोग होता है। अब परिणामयोगस्थान का स्वरूप कहते हैं -
परिणामजोगठाणा सरीरपज्जत्तगादु चरिमोत्ति ।
लद्धिअपज्जत्ताणं चरिमतिभागम्हि बोधव्वा ।।२२० ।। अर्थ - शरीरपर्याप्तिके पूर्ण होने के समय से आयु के अन्तपर्यन्त परिणामयोगस्थान होता है और जिसकी शरीरपर्याप्ति पूर्ण नहीं होती है ऐसे लब्ध्यपर्याप्तकजीव के अपनी आयु (श्वासके अठारहवेंभागप्रमाण अर्थात् १ सेकिण्ड के २४ वें भाग प्रमाण) के दो त्रिभाग व्यतीत हो जाने पर शेष अन्तिमत्रिभागके प्रथमसमय से अन्तसमयपर्यन्त स्थिति के सर्वभेदों में उत्कृष्ट और जघन्य दोनों प्रकार के परिणामयोगस्थान जानना।
विशेषार्थ - पर्याप्त होने के प्रथमसमय से लेकर ऊपर सर्वकाल परिणामयोग होता है। यद्यपि गाथा में व धवल पु. १० पृ. ४२०, ४२२, ४२७ व ४३१ पर शरीर पर्याप्ति से पर्याप्त होने पर 'परिणामयोग' होता है ऐसा कहा गया है तथापि ध. पु. १० पृ. ५५ पर कहा है कि एक भी पर्यासिके अपूर्ण रहने पर पर्याप्तकों में परिणामयोग नहीं होता इस बात के ज्ञापनार्थ "सर्व पर्याप्तियों से पर्याप्त हुआ" ऐसा सूत्र में कहा गया है।
लब्ध्यपर्याप्तकों के आयुबन्धके योग्यकाल में अपने जीवित के त्रिभाग में परिणाम योग होता है। लब्ध्यपर्याप्तकों के आयुअबन्धकाल में ही परिणामयोग होता है ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं, किन्तु वह घटित नहीं होता, क्योंकि इसप्रकार से जो जीव परिणामयोग में स्थित है एवं उपपादयोग को नहीं प्राप्त हुआ है उसके एकान्तानुवृद्धियोग के साथ परिणामके (परिणमन) होने से विरोध आता है। १. “जहण्णुक्कसेण एक समओ" धवल पु. १० पृ. ४२० २. 'पढसभय तब्भवत्थस्स विग्गहगीए वट्टमाणस्स' धवल पु. १० पृ. ४२१ ३. एकाए वि पजत्तीए असमत्ताए पज्जत्तएसु परिणामजोगो ण होटि त्ति जाणवणट्ट सब्बाहि पजत्तीहि पज्जत्तयदो त्ति उत्तं ।
(धवल घु. १० पृ. ५५) ४. लद्धिअपज्जत्ताणमाउअबंधकाले चेव परिणामजोगो होदि त्ति के वि भणति । तण्ण घडदे, परिणामजोगो ट्ठिदस्स
अपत्तुववादजोगस्स एयंताणुवढिजोगेण परिणामविरोहादो । (धवल पु. १० पृ. ४२०-२१)