Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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गोम्मटसार कर्मकाण्ड - १७७
उपर्युक्त गाथा कथित ११ प्रकृतिबिना शेष उत्तरप्रकृतियों में विशेषता दिखाते हैं -
चरिमअपुण्णभवत्थो, तिविग्गहे पढमविग्गहम्हि ठिओ । सुमणिगोदो बंधदि, सेसाणं अवरबंधं तु ॥ २१७ ॥
अर्थ - ६०१२ क्षुद्रभवों में से अन्तिम क्षुद्रभव में स्थित और विग्रहगति के तीनमोड़ा में से प्रथममोड़े में स्थित सूक्ष्मनिगोदियाजीव उपर्युक्त गाथा कथित ११ प्रकृति बिना शेष १०९ प्रकृतियों का जघन्य प्रदेशबन्ध करता है।
विशेषार्थ - उपर्युक्त सूक्ष्मनिगोदियाजीव के सबसे के सबसे जघन्य उपपादयोग होता है जो अनन्तरवर्तीसमय में एकान्तानुवृद्धियोगरूप हो जाने से वृद्धिको प्राप्त हो जाता है इसीलिए उपर्युक्त जीवके प्रथमसमय में जघन्य प्रदेशबन्ध होता है ।
इस प्रकार जघन्य और उत्कृष्टप्रदेशबन्ध के स्वामी कहे। जहाँ पर उत्कृष्ट अर्थात् सबसे अधिक परमाणु बंधते हैं वह उत्कृष्टप्रदेशबन्ध है तथा जहाँपर अल्पतम कार्माणपरमाणुओं का बन्ध होता है वह जघन्यप्रदेशबन्ध है। चार प्रकार के बन्ध में पहले जो प्रकृतिबन्ध कहा वह मूल व उत्तरप्रकृतिरूप है। उनमें से एकजीव के एकसमय में युगपत् बन्धको प्राप्त होनेवाली प्रकृतियों के जघन्यादि भेदरूप स्थितिअनुभाग और प्रदेशरूपबन्ध होता है।