Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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गोम्मटसार कर्मकाण्ड-११५
पड़ता है, किन्तु उदीरणाआबाधाकाल एकआवलीप्रमाण है। इसको बन्धावली या अचलावली भी कहते हैं। एकेन्द्रिय की स्थिति से द्वीन्द्रियादिकी स्थिति संख्यातगुणी है। सझीपञ्चेन्द्रियजीवकी आबाधासे असञ्जीपञ्चेन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, द्वीन्द्रिय और एकेन्द्रियजीवों की आबाधा क्रमसे संख्यातगुणी कम-कम है, किन्तु सर्वअसञीजीवों की आबाधा का प्रमाण अन्तर्मुहूर्त ही है, क्योंकि अन्तर्मुहूर्तके भेद बहुत हैं। एकेन्द्रियकी जघन्यआबाधा से द्वीन्द्रियादिकी जघन्यआबाधा क्रमसे २५-५०-१०० और १००० गुणी है तथा उत्कृष्टआबाधाके प्रमाण से सञ्जीजीवों की तो संख्यातगुणी है। असञ्जीपञ्चेन्द्रिय व विकलत्रयजीवों की अपनी-अपनी जघन्यआबाधा से यद्यपि आवली के संख्यातवांभागप्रमाण अधिक उत्कृष्टआबाधा है तथापि यह उत्कृष्टआबाधा असञ्जीपञ्चेन्द्रिय से एकेन्द्रियपर्यन्त क्रमसे संख्यातगुणीसंख्यातगुणीहीन जानना तथा एकेन्द्रियजीव में अपनी जघन्यआबाधा से आवलीका असंख्यातवांभागप्रमाण अधिक उत्कृष्ट आबाधा समझना चाहिए।
यहाँ एकेन्द्रियजीवके उत्कृष्टआबाधा के प्रमाणमें से जघन्यआबाधाका प्रमाण घटानेसे जो प्रमाण बचे उसमें एक और मिलाने से जो प्रमाण होता है उतने आबाधा के भेद एकेन्द्रियजीव के हैं। इसी प्रकार द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रय, असञ्जी और सञीके अपनी-अपनी उत्कृष्टआबाधा के प्रमाण में से अपनी-अपनी जघन्यआबाधा का प्रमाण घटाकर उसमें एक मिलाने से आबाधा के भेदों का प्रमाण निकलता है।
'आदी अंते सुद्धे वद्धिहिदे रूव संजुदे ठाणा' आदि को अन्त में से घटाकर उसमें वृद्धि का भाग देकर एक और मिलाने पर स्थानों का प्रमाण होता है। यहाँ आदि तो जघन्यआबाधा है और अन्त उत्कृष्टआबाधा है। अत: उत्कृष्टआबाधामें से जघन्य आबाधाको घटाकर वृद्धिके प्रमाण एकका भाग देने पर जो संख्या प्राप्त हो उसमें एक मिलानेपर आबाधाके भेदरूप स्थानों का प्रमाण होता है। यहाँ जघन्यसे एक-एक समय बढ़ाते-बढ़ाते उत्कृष्ट भेद होता है, अत: वृद्धि का प्रमाण एक हुआ। अघन्यस्थितिबन्थको सिद्ध करने के लिए गणितसूत्र कहते हैं -
जेट्ठाबाहोवट्टियजेठं आबाहकंडयं तेण।
आबाहवियप्पहदेणेगूणेणूणजेट्ठमवरठिदी॥१४७ ।। अर्थ - एकेन्द्रियादिजीवों की उत्कृष्टस्थितिको उत्कृष्टआबाधासे भाग देने पर जो प्रमाण आवे उसे आबाधाकाण्डक कहते हैं। अपने-अपने आबाधाकाण्डकके प्रमाणसे अपने-अपने आबाधाके भेदों को गुणा करने पर जो प्रमाण प्राप्त हो उसमें से एक घटाकर जितना प्रमाण आवे उतना अपनी-अपनी उत्कृष्टस्थिति में से घटानेपर जो लब्ध आया वह अपनी-अपनी जघन्यस्थिति समझना।