Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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गोम्मटसार कर्मकाण्ड - १३३
अथ अनुभागबन्धप्रकरण अब अनुभागबन्ध को २२ गाथाओं से कहते हैं
सुहपयडीण विसोही तिव्वो असुहाण संकिलेसेण । विवरीदेण जहणणो अणुभागो सव्वपयडीणं ॥ १६३ ॥
अर्थ - सातावेदनीय शुभप्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभागबन्ध विशुद्ध परिणामों से होता है और असातावेदनीयादि अशुभ (पाप) प्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभागबन्ध संक्लेशपरिणामों से होता है तथा इनसे विपरीत परिणामों से जघन्यअनुभागवन्ध होता है अर्थात् शुभप्रकृतियों का संक्लेशपरिणामों से और अशुभप्रकृतियों का विशुद्धपरिणामों से जघन्य अनुभागबन्ध होता है। इस प्रकार सभी प्रकृतियों का अनुभाग बन्ध जानना। मन्दकषायरूप तो विशुद्धपरिणाम तथा तीव्रकषायरूप संक्लेशपरिणाम होते हैं। '
'शंका- "शुभ
संक्लेशमाता है और विशुद्धपरिणामों से पाप-प्रकृतिका जघन्य- अनुभागबन्ध होता है" ऐसा गोम्मटसार कर्मकांड गाथा १६३ की बड़ी टीका के पृ. १९९ पर लिखा है। इसमें शंका यह है कि प्रथम तो संक्लेश-परिणामों से शुभप्रकृति का बन्ध ही नहीं होता, क्योंकि संक्लेशपरिणामों को पाप परिणाम कहते हैं और पापपरिणामों से शुभका बन्ध नहीं होता, पापपरिणामों से पाप ही का बन्ध होता है उदाहरण सहित स्पष्ट करें।
समाधान- शुभ परिणामों से शुभप्रकृतियों का ही आसव व बन्ध होता है और अशुभ परिणामों से पापप्रकृतियों का ही आखव और बंध होता है, ऐसा एकान्त नियम नहीं है । क्योंकि ४७ ध्रुवबन्धी प्रकृतियों में पुण्य और पाप दोनों प्रकार की प्रकृतियाँ हैं जिनका शुभ और अशुभ दोनों प्रकार के परिणामों में निरन्तर आस्रव व बंध होता रहता है। वे ध्रुवबन्धी ४७ प्रकृतियाँ इस प्रकार हैं.
णाणतरायदयं दंसण णव मिच्छ सोलस कसाया ।
भय कम्म दुगुच्छा वि य तेजा कम्मं च वण्णचदू ॥
अगुरुअलहु-उवघादं णिमिणं णामं च होंति सगदाल |
बंधो चउव्वियप्पो ध्रुवबंधीणं पयडिबंधो। (धवल पु. ८ पृ. १७)
अर्थ - ज्ञानावरण और अंतराय की दश, नौ दर्शनावरण, मिध्यात्व, सोलहकषाय, भय, जुगुप्सा, तैजस-शरीर, कार्माणशरीर, वर्णादिक-चार, अगुरुलघु, उपघात और निर्माण नामकर्म, ये सैंतालीस ध्रुवबन्धी प्रकृतियाँ हैं ।
इन ४७ ध्रुवबन्धी प्रकृतियों में से तैजसशरीर, कार्माणशरीर, अगुरुलघु और निर्माण से चार पुण्य (शुभ) प्रकृतियाँ हैं और शेष ४३ अशुभ (पाप) प्रकृतियाँ हैं । (सर्वार्थसिद्धि अध्याय ८ सूत्र २५ व २६ ) |
इस प्रकार अशुभ परिणामों में उपर्युक्त चार शुभप्रकृतियों का तो अवश्य ही बंध होता है। इनके अतिरिक्त औदारिक या वैक्रियिकशरीर, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, बादरपर्यात, प्रत्येकशरीर, तिर्यचायु का भी यथायोग्य बन्ध सम्भव है । जिनमें जघन्य - अनुभागबन्ध होता है। शुभ परिणामों में उपर्यक्त ४३ ध्रुवबन्धी अशुभ प्रकृतियों का बन्ध होता है, जिनमें जघन्य अनुभागबन्ध होता है।