Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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गोम्मटसारकर्मकाण्ड-१४३ आवरणदेसघादंतरायसंजलणपुरिससत्तरसं।
चदुविहभावपरिणदा तिविहा भावा हु सेसाणं ||१८२ ।। अर्थ - आवरणों में देशघातिकी ७ प्रकृतियाँ, अन्तराय की पाँच, सञ्चलनकी चार और एक पुरुषवेद ये १७ प्रकृतियाँ शैलादि चारों प्रकार के भावरूप परिणमन करती हैं और शेष सर्वप्रकृतियाँ लताबिना शेष तीनप्रकार से परिणत होती हैं।
विशेषार्थ - १७ प्रकृत्तियाँ शैल, अस्थि, दारु और लता इन चार भावरूप परिणत होती हैं, जहाँ शैलभाग नहीं होता वहाँ अस्थि, दारु, लतारूप परिणता होती हैं तथा जहाँ अस्थिभाग भी नहीं है वहाँ दारु और लतारूप ही प्रवर्तित होती हैं एवं जहाँ दारुभाग भी नहीं है वहाँ केवल लतारूप ही परिणत होती है तथा इन १७ प्रकृतियों के बिना अवशेष प्रकृतियों में से सम्यक्त्व और मिश्र (सम्यग्मिथ्यात्व) प्रकृतिबिना घातियाकर्म की समस्तप्रकृतियों के तीन प्रकार के भाव जानना । केवलज्ञानावरण व केवलदर्शनावरण, ५ निद्रा और अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान क्रोध, मान, माया और लोभरूप १२ कषाय के सर्वघातिस्पर्धक ही हैं, देशघाति नहीं है, अत: इनके स्पर्धक शैल, अस्थि और दारुके अनन्तबहुभागरूप हैं तथा शैलके बिना २ प्रकार एवं अस्थिके बिना १ प्रकार भी पाए जाते हैं इसलिए तीनों प्रकार के भावरूप हैं। परुषवेदके बिना नोकषाय शैल अस्थि. दारु और लतारूपचारों प्रकार के अनुभाग से सहित हैं। इनमें से शैल, अस्थि, दारु व लता तथा अस्थि, दारु व लतारूप अथवा दारु व लतारूप से तीन प्रकार परिणत होती हैं केवल लतारूप से कदाचित् भी परिणत नहीं होती हैं। अथानन्तर अघातियाप्रकृतियों में अनुभाग का कथन करते हैं -
अवसेसा पयडीओ अघादिया घादियाण पडिभागा।
ता एव पुण्णपावा सेसा पावा मुणेदव्वा ॥१८३॥ अर्थ - शेष अघातियाकर्म की प्रकृतियाँ घातियाकर्मों के समान प्रतिभागयुक्त हैं इनके स्पर्धक भी चार भावरूप ही परिणत होते हैं। इन अघातियाकर्मों की प्रकृतियाँ पुण्य व पापरूप होती हैं। शेष घातिया कर्मों की प्रकृतियाँ पापरूप ही होती हैं। आगे प्रशस्त व अप्रशस्त अघातियाकर्मों के स्पर्धक (शक्ति) को अन्य नामों से कहते हैं -
गुडखण्डसकरामियसरिसा सत्था हु णिंबकंजीरा।
विसहालाहलसरिसाऽसत्था हु अघादिपडिभागा ॥१८४ ॥' १. परन्तु इस विषय में अन्यत्र इस प्रकार लिखा है कि गुड़ आदि भेद ४२ प्रशस्त प्रकृतियों के होते हैं। तथा शेष ३७ अप्रशस्त
प्रकृति एवं ४७ घातिकर्म की प्रकृति इनके अनुभाग नीमकांजीर आदि रूप कहे हैं। प्रा.पं. सं. पृ. २७७ ज्ञानपीठ कृपया देखें स्वा. का. अनु. गाथा ३०९, पृष्ठ २१९